दिवास्वप्न की कसौटी पर वर्तमान शैक्षिक परिदृश्य
गत शताब्दी के प्रारंभ में देश के राजनीतिक फलक पर एक युगांतरकारी घटना हुई जिसने देश-दुनिया को प्रभावित किया। वह वह घटना थी, जनवरी 1915 में महात्मा गांधी की दक्षिण अफ्रीका से भारत वापसी। गांधी जी के साथ ही एक व्यक्ति, गिजुभाई बधेका, भी भारत आए हैं जो अफ्रीका में गांधी जी के साथ आश्रम में रहते हुए वकालत के काम में सहयोग करते थे। भारत आने के बाद महात्मा गांधी देश की राजनीति और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को समझने के लिए यात्राओं पर निकले। गिजुभाई की रुचि राजनीति में न थी, और वह वकालत के पेशे से भी नहीं जुड़ना चाहते थे। नियति ने शायद उनके लिए कुछ नया करने, नये दृश्य रचने-रंगने को एक नया वितान सुरक्षित रखा छोड़ा था। पथ सूझते न देख, द्वंद्व में फंसे गिजुभाई ने एक दिन गांधी जी के समक्ष एक सवाल रखा कि यहां मैं क्या करूं और गांधीजी ने कहा कि गिजु! तुम बच्चों के लिए एक विद्यालय खोलो। एक ऐसा विद्यालय जहां बच्चों को अपनापन मिले, जहां बच्चों के मस्तिष्क, हृदय और हाथ के हुनर को तरासा जाए। बस, गिजुभाई को जैसे राह मिल गई और वह हटकर कुछ नया रचने के संकल्प के साथ पथ पर बढ़ने लगे। बड़ा आश्चर्य होता है यह जानकर कि गिजुभाई बधेका जिसका संबंध शिक्षा के क्षेत्र से दूर-दूर तक नहीं था, उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में ऐसे नवीन प्रयोग किये जो आज भी ना केवल प्रासंगिक हैं बल्कि प्रकाश स्तंभ की भांति शिक्षकों का मार्गदर्शन भी कर रहे हैं। गिजुभाई ने 1916 में भावनगर (गुजरात में) दक्षिणामूर्ति बालमंदिर से जुड़कर अपने शिक्षा सम्बंधी प्रयोग आरम्भ किये। 15 वर्षों की शिक्षकीय साधना से हासिल अनुभव को ही 1932 में ‘दिवास्वप्न’ के रूप में लोक को सौंप दिया। आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व गिजुभाई विद्यालय की छवि एक आनंदघर के रूप में देखते हैं और वह न केवल कल्पना करते हैं बल्कि तमाम झंझावातों, रुकावटों एवं बाधाओं से लड़ते-जूझते हुए अपने प्रयोग सिद्ध करते हैं। प्रस्तुत आलेख में आगे की यात्रा हम ‘दिवास्वप्न’ के रथ पर सवार होकर करेगें।
आगे बढ़ने से पहले मुझे वर्तमान शैक्षिक तंत्र के परिदृश्य में उभर रहे सवालों को उठाना समीचीन प्रतीत होता है ताकि विगत एक शताब्दी के गुजरे समय में शैक्षिक ढांचे में हुए बदलावों को हम दिवास्वप्न के निकष के आधार पर समझ सकें। आर्ज िशक्षकों के सम्मुख स्वयं की अस्मिता एवं अस्तित्व की रक्षा करने का संकट मुंह बाये खड़ा है। विद्यालय एवं कक्षाओं में स्वयं के विवेक एवं बच्चों की आवश्कतानुरूप पाठ्य सामग्री तय एवं निर्माण करने और काम करने की आजादी नहीं है वरन् उनकी रचनात्मकता ऊपर से प्राप्त तमाम दिशा-निर्देशों के बोझ तले दबने-पिसने को विवश है। शिक्षकों पर सरकारों का (और समाज का भी) भरोसा नहीं है, इसीलिए विद्यालयों एवं कक्षाओं में उनकी उपस्थिति एवं क्रियाकलापों की निगरानी के लिए तमाम तकनीकी उपकरण लगवाने के साथ ही औचक निरीक्षण भी किये जा रहे है। ध्येय समर्पिर्त िशक्षकों के काम का उपहास और उपेक्षा की जा रही है, विडंबना तो यह कि जमीनी काम कर रहे शिक्षकों कें प्रयासों का माखौल उड़ाने में शिक्षक साथी भी शामिल दिखाई देते हैं। अब दिवास्वप्न की ओर बढ़ते हैं।
गिजुभाई की शिक्षा अधिकारी से पहली भेंट ही निराश करने वाली रही, पर उनके आग्रह पर अधिकारी तमाम हिदायतें और विभागीय नियमों का हवाला देते हुए कहते हैं, ‘‘देखो, जैसे चाहो वैसे प्रयोग करने की स्वतंत्रता तो तुम्हें है ही लेकिन यह भी ध्यान में रखना के बारहवें महीने में परीक्षा सामने आ खड़ी होगी और तुम्हारा काम परीक्षा के परिणामों से मापा जाएगा।’’ मेरे मानस पटल पर प्रश्न कौंधता है कि आज भी हम इस परीक्षा प्रणाली से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह परीक्षा प्रणाली जो बच्चों के मौलिक एवं स्वतंत्र चिंतन करने, कल्पना, अनुमान, अवलोकन, तर्क, तुलना आदि से उपजे उसके अनुभव से अर्जित-निर्मित ज्ञान के अभिव्यक्ति में एक सबसे बड़ी बाधा के रूप से उपस्थित है। परीक्षा में उसका मूल्यांकन उत्तरपुस्किाओं में पाठ्यपुस्तकों पर आधारित तथ्यों एवं निष्कर्षों के पुनर्लेखन पर ही निर्भर है। यह परीक्षा प्रणाली बच्चों को रटने की पद्धति को स्वीकारने को विवश करती है ना कि उनमें वैज्ञानिक दृष्टि एवं चेतना का संचार करने तथा तार्किक विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करने की। हालांकि सतत एवं व्यापक मूल्यांकन के रूप में एक आकर्षक इंद्रधनुष सामने दिखता जरूर है पर वह शैक्षिक धरातल पर उतरने से अभी कोसों दूर है। बच्चे अनंत ऊर्जा से लबरेज होते हैं। एक शिक्षक को बच्चों के साथ काम करते समय ना केवल स्वयं में ऊर्जा, सहनशक्ति, संवेदनशीलता एवं धैर्य बनाए रखना होता है बल्कि सभी बच्चों के साथ मिलकर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को गति भी देना होता है। ऐसी स्थिति में प्रायः पूर्व नियोजित योजनाएं ध्वस्त हो जाती हैं और शिक्षक को तत्काल नई गतिविधियां खोजनी आवश्यक हो जाती हैं। गिजुभाई लिखते हैं, ‘‘मेरे यह नोट्स बेकार हंैं। घर में बैठे-बैठे अटकलें लगाना और कल्पना में पढ़ा लेना सहज था लेकिन यह तो लोहे के चने चबाने जैसा है।’’ आज भी शिक्षक इन्हीं चुनौतियों से जूझते हुए बच्चों के सर्वांगीण विकास में प्राणपण से जुटे हुए हैं।
गिजुभाई ‘दिवास्वप्न’ में एक दृश्य उकेरते हैं, ‘‘ छुट्टी शब्द सुनते ही लड़के ‘हो-हो’ करके कमरे से बाहर निकले और सारे स्कूल में खलबली मच गई। सारा वातावारण ‘छुट्टी, छुट्टी, छुट्टी’ शब्दों से गूंज उठा। लड़के उछलते-कूदते और छलांगें भरते घरों की तरफ भागने लगे।’’ उल्लेखनीय है, विद्यालयों का वर्तमान दृश्य इससे बहुत अलग नहीं है। बच्चे स्कूलों से जल्द घर पहुंचना चाहते हैं। छुट्टी बच्चों को आनंद प्रदान करती हैं। छुट्टी की घंटी बजते ही कक्षाओं में कैद कल्पना एवं रचनात्मकता की खुशबू जैसे बंधनों से मुक्त हो जाने का उत्सव मनाती हुई परिवेश में बिखर जाती है। अनिर्वचनीय उत्साह, उल्लास और प्रसन्नता बच्चों के चेहरों पर देखा जा सकता है। तमाम शिक्षा आयोग के रिपोर्ट एवं शिक्षा नीतियों की अनुशंसाओं के बावजूद हम कक्षाओं को पारंपरिक जड़ता से मुक्त करके विद्यालयीय परिवेश को सहज सुरम्य, समता-ममता भरा आनंददायी नहीं बना पाए हैं। विचारणीय है, विद्यालयों में हम घर जैसा प्यार-दुलार एवं अपनेपन का वातावारण सर्जित नहीं कर पायें हैं। शिक्षकों को समझना होगा कि सीखना-सिखाना सर्वदा दबाव एवं तनावरहित, रुचिपूर्ण एवं प्रेममय वातावरण में ही सम्भव होता है। ऐसा आह्लादित परिवेश रचने हेतु ‘दिवास्वप्न’ शिक्षकों के लिए पथ संकेत के सहज सूत्र प्रदान करता हैं और वह सूत्र है कहानी, कविता और खेल। अतः शिक्षकों को पाठ्य एवं बालमनोनुकूल कविताएं, कहानियां एवं खेल स्वयं लिखने-खोजने की ओर प्रवृत्त होना होगा।
‘दिवास्वप्न’ के नायक शिक्षक ‘लक्ष्मीशंकर’ के माध्यम से जिस शिक्षा समर्पित ध्येयनिष्ठ, बालहितैषी शिक्षक की कल्पना गिजुभाई ने की थी वो लक्ष्मीशंकर शिक्षक शिक्षिकाओं में क्यों नहीं दिखता, यह एक सवाल शिक्षक समाज के सम्मुख उत्तर की प्रतीक्षा में मौन खड़ा है। दरअसल आज बच्चों का शैक्षिक सामाजिक नुकसान भविष्य में समाज और राष्ट्र की एक बड़ी क्षति के रूप में प्रकट होने वाला है, यह हम नहीं समझ पा रहे है। गिजुभाई दिवास्वप्न के माध्यम से भारतीय शिक्षा तंत्र के नीति निर्धारकों को एक रास्ता सुझाते दिखाई देते हंै। एक ऐसा रास्ता जिससे गुजर कर हम जड़ विद्यालयीय परिवेश में जीवन का संचार कर सकते हैं। जहां बच्चों का न केवल मधुर कलरव सुनाई दे बल्कि जहां उनकी रचनात्मकता भी विभिन्न आयामों के साथ सहज रूप में प्रकट हो सके। बालकेंद्रित शिक्षा वास्तव में विद्यालयों को आनंदघर बनाने की एक रोचक यात्रा ही है जहां प्राथमिक विद्यालयों की चहारदीवारी के अंदर लोकसंस्कृति में रचे-बसे बच्चों के प्राणों का स्पंदन हो और उनके परिवार-परिवेश का राग ध्वनित हो, जहां उनकी भाषा-बोली को महत्व एवं सम्मान मिले, जहां प्रत्येक पल उत्सवधर्मिता की खुशी से सराबोर हो, जहां नित नवल सृजन की इच्छा-आकांक्षा और सिद्धि का शुभ संकल्प हो।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’