बैठा नाक गुरूर
नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास ।
सांस-सांस में त्रास है, घायल है विश्वास ।।
रिश्तों की उपमा गई, गया मनों अनुप्रास ।
ईर्षित सौरभ हो गए, जीवन के उल्लास ।।
कहाँ हास-परिहास अब,और बातें जरूर ।
मिलने ना दे स्वयं से, बैठा नाक गुरूर ।।
बोये पूरा गाँव जब, नागफनी के खेत ।
कैसे सौरभ ना चुभे, किसे पाँव में रेत ।।
दीये से बाती रुठी, बन बैठी है सौत ।
देख रहा हूँ आजकल,आशाओं की मौत ।।
कहाँ सत्य का पक्ष अब, है कैसा प्रतिपक्ष ।
हाँक रहा हो स्वार्थ जब, बनकर सौरभ अक्ष ।।
सपने सारे है पड़े, मोड़े अपने पेट ।
खेल रहा है वक्त भी, ये कैसा आखेट ।।
रख दे रिश्ते ताक पर, वो कैसे बदलाव ।
षडयंत्रकारी जीत से, सही हार ठहराव ।।
✍ डॉ सत्यवान सौरभ