लोढ़ती सरसों
लोढ़ती सरसों,
देखा उसे मैंने-
महेंद्र बाबू के ड्योढ़ी पर
आज नहीं, कल-परसों,
लोढ़ती सरसों ।
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दिवस फ़ाग अँधियारा,
होली रूप वानरा,
श्यामली सुन्दर तन भी,
ढलकती यौवन भी,
साथ में ठिठुरती बच्ची,
शबरी-रंग, मुशहर की बच्ची,
कली थी कच्ची ।
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शरीर से शव,
बाबू का प्यासा लव ।
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फिर भी डण्डे से,
बच्ची भी,
फोड़ती सरसों,
लोढ़ती सरसों ।
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[नोट : साप्ताहिक ‘आमख्याल’ में 25 वर्ष पूर्व दि. 29.03.1995 के अंक में छपी कविता, अब पुनर्प्रकाशित]