चलित्तर कर्मकार
आगे बढ़कर भी
जो पीछे नहीं हटा ।
यह तापस बिंदु
अविराम अवस्था लिए है
कि यह देखते ही
बन जाते रिश्ते-नाते
कैसे-कैसे भी ?
यहाँ-वहाँ सर्वत्र
कि अति सर्वत्र वर्जयेत !
उनमें सार्थकता भी
अभीष्ट बिंदु लिए है
सच में, सच में
जो अनंतिम नहीं है
अंतिम यात्रा के प्रसंगश:
आगे बढ़ते जाकर
अट्टहास और अट्टहास
हास, परिहास, इतिहास
गुमशुदा सच है
या जिंदगी का विन्यास
परिधित: व्यास
एक और ठौर
उत्साहित
और कम साहित्य
उठाईगिरी के विन्यास के जिम्मे
और भी एक मुश्तता लिए
चरैवेति-चरैवेति
दीया और बाती
सुहाबाती ।
….और भी सुभाती है
और कठिनाई भाती है ।
हर कुछ बहती है,
वे सबकुछ सहती है,
किन्तु उनके जैसा नहीं
क्योंकि वह ‘चलित्तर कर्मकार’ थे !