ढाक के तीन पात
सम्बंधों के शेयर बाजार में
हर बार लगाता रहा
अपनी सकल जमा पूँजी
बिखरती हिम्मत को जुटाकर
चकनाचूर हौसलों को जोड़कर
उड़ते फाहों को धागे के रूप में
पुनः पिरोकर
हृदय को पहले से अधिक कठोर कर
समूल घाटे को भुलाकर
कुछ पाने की आस में
उजड़ते उपवन के बिखरते सुवास में
सब कुछ दाव पर लगाया
बार…..बार…..बारम्बार
लेकिन जब सम्बंध
शेयर बाजार बन गए हों
समस्त नियंता एक जुट हों
निष्कपट अभिमन्यु को
पारिवारिक मोह के व्यूह में फँसाकर
मारने में दक्ष हों
लुभावने विज्ञापन द्वारा शोषण हेतु शिखंडी
विविध घातक हथियारों के साथ
अड़े हों
निहत्थे और स्ववचनबद्ध भीष्म के सम्मुख खड़े हों
तो परिणाम……!
परिणाम वही पूर्व निर्धारित
बाजारवाद से प्रेरित
रात का दिन
दिन की रात
नये महाभारत की शुरुआत
ढाक के फिर वही… तीन पात।
— डॉ अवधेश कुमार अवध