ग़ज़ल
ना तेरा एतबार रहा अब और ना रहा सत्त्कार।
खण्डित-खण्डित कर दिए हैं सब सज्जन-दुश्मन-यार।
तीखी जिहवा जब भी चलती ख़ून खराबे करती,
बेशक म्यान में बंद रहती है दो धारी तलवार।
शीतल आँसुओं के भीतर फूटे एक क्रान्ति,
लेकिन शांत समन्दर से ही उठता है मंझधार।
मोह ममता तो पंख लगाकर उड़ गए दूर कहीं,
हर एक रिश्ता मण्डी बनकर करता है व्यापार।
इस युग में नागफनी अभिवादन करती दर पर,
दिल के आँगन में फिर कौन उगाता है कचनार।
इत्र बनाने की खातिर क्या-क्या मानव करता है,
शाखायों से तोड़ रहा है बस कच्चे आनार।
छिद्र पतलून अर्ध वस्त्रा केवल दिखावे मात्र,
आज भी सुख और चैन है देता कुर्ता और सलवार।
इश्तिहार दो तो कूड़ा भी प्रकाशित हो जाता,
आचरण पक्ष से डूब चुकी हैं क्षेत्रीए अख़बार।
‘बालम’ गुस्से में भी थोड़ा तू हँसकर देख जरा,
मित्रों के भीतर होती है रेतीली दीवार।
— बलविन्दर ‘बालम’