कविता

परदा

परदे में पैदा होती है
परदे के पीछे ही रहती है
बढ़ती है निखरती जाती है
शर्म के परदे की ओट में
खूबसूरती समेटे रहती है
प्रेम के चमक से आंखें चमकती रहती है
स्वयं को छुपाती सकुचाती
प्रखर होती जाती है
लाज में लिपटी
विवाह के बंधन में बंध जाती है
रिश्ते दर रिश्ते
कायदे नियमों के दायरे में
हर किरदार को बखूबी
बड़ी बेबाकी से निभाती है
मर्यादाओं में सिमटी
मुश्किल पलों में
हौसला और हिम्मत की मिसाल बन जाती है
घर को सम्भाले एक डोर को
बड़ी मजबूती से थामे रहती है
एक पहेली सी
समझ से परे
उलझी हुई सी
नाजुक कोमल सी
स्नेह की मूर्ति
क्या अपने आपको को कभी
पहचान भी पाती है
बन्धनों दायरों मर्यादाओं में बंधी वो
क्या कुछ नहीं जो वो
अकेले ही कर गुजर जाती है
अश्रुपूरित नयनों में नीर भरके
सैलाब को थामे रहती है
सब कुछ सहती है समझती है
कहां कभी खुल के कुछ कहती है
आईने रोज देखती है
क्या कभी स्वयं के अंदर झांकती होगी
कुछ भी हो कैसी भी हो
सबके मन में जो बसी है
अपनी मूरत अपनी सूरत
स्नेह और प्रेम से छलकती
एक नारी हृदय
उसको बड़ी शिद्दत से थामे रहती है
खुद मिट जाती है पर
अपनी छवि को हर दिल में बनाये रखती है
टूटने बिखरने नहीं देती है
परदे में जीती है
परदे में ही दुनिया से विदा हो जाती है।

आज ये किसने हमको आईना दिखाया
अपनी नजरों में भर के मुझको मेरा ही चेहरा दिखाया।

*बबली सिन्हा

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