कविता

चिंतन बाल-कल्याण पर

बचपन सबका हँसकर बीते,यह ही बस चाहत है,
नहीं रहे वंचित कोय बच्चा,यही मेरा अभिमत है।

पालन-पोषण,शिक्षा,शैशव,सब कुछ अब मोहक हो,
मिले वही हर बच्चे को जो,उसका समुचित हक़ हो।

अधिकारों की बातें होतीं,सच लेकिन उल्टा है,
झुग्गी के बच्चों का देखो,जीवन सब पल्टा है।

नारे-वादे बहुत हो चुके,अब कुछ करना होगा,
बच्चों के बचपन-जीवन को,रँग से भरना होगा।

ऊँचे भवनों के बच्चों का,बचपन खिलकर महके,
रहते हैं वे सुख-वैभव में,खुशियों से सब चहके।

पोशाकें धारण कर सुंदर,शालाओं को जाते,
भोजन-पोषण सब उत्तम है,सब लम्हे हैं भाते।

आओ,तो फिर बालक-हित को,भूखों तक ले जाएं,
सरकारी धन,हितकर्मों को,वंचित तक पहुँचाएं।

आयोजन से कुछ ना होगा,कर्म निभाना होगा,
बच्चा कोई कुम्हलाए ना,उपवन लाना होगा।

कहीं निराशा,मायूसी है,मौसम है उजड़ा -सा,
दीन-दुखी के बच्चों का तो,जीवन है बिगड़ा-सा।

आओ हम संकल्प निभाएं,बालक दिवस मनाएं,
हर बच्चे को,हर शोषण से,करके जतन बचाएं।

— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]