इतिहास

अमर अभिमन्यु ने चक्रव्यूह को किया था छिन्न-भिन्न

प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के राष्ट्रवादी महानायक बाबू वीर कुँवर सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। 26 अप्रैल 1858 को आजाद जगदीशपुर में उन्होंने अंतिम साँस ली। उनके दोनों ही सपूत उत्तर प्रदेश की पावन भूमि पर अंग्रेजों को मुँह तोड़ जवाब देते हुए कुर्बान हो गए थे। उसके बाद की कहानी पर इतिहास प्रायः मौन है। आज हम उसी पर विचार करेंगे।
बाबू वीर कुँवर सिंह की साँसें अनिश्चित भविष्य को लेकर अटकी हुई थीं। उनके सहोदर अनुज बाबू अमर सिंह ने उन्हें भींगी आँखों से आश्वस्त किया। बाबू वीर कुँवर सिंह के महाप्रस्थान के साथ ही आजादी के संग्राम का पूर्ण दायित्व बाबू अमर सिंह के कंधों पर आ गया। 23 अप्रैल की पराजय से सेनापति ली ग्रांड घायल साँप की तरह फुँफकार रहा था। अभी बाबू कुँवर सिंह की तेरही भी नहीं बीती थी कि 3 मई 1858 को सेनापति ल्युगार्ड और सेनापति डगलस ने संयुक्त सेना के साथ जगदीशपुर पर जोरदार हमला बोल दिया। नौ महीनों के छिटपुट संग्राम ने अमर सिंह को यथोचित युद्धनीति का अनुभवी बना दिया था। अमर सिंह ने अपने सरफरोश सहयोगियों को छोटी- छोटी टुकड़ियों में बाँट दिया। ये राष्ट्रवादी टुकड़ियाँ शाहाबाद जिले के विभिन्न छोरों पर तैनात थीं। मौका मिलते ही गोरों पर छापामार आक्रमण करना और फिर लापता हो जाना इनकी युद्धनीति थी।
अंग्रेज सहमे-सहमे से रहने लगे। न जाने कब कहाँ से हमला हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता! 15 जून सन 1858 को सेनापति ल्युगार्ड इस्तीफा देकर इंग्लैंड भाग गया और उसकी सेना छावनी में आराम करने लगी। भयभीत अंग्रेज जगदीशपुर से बहुत दूर चले गाए। बाबू अमर सिंह ने सहयोगियों को साथ लेकर गया का रुख किया। वहाँ गोरों ने बहुत बड़ी संख्या में आजादी के दीवानों को कैद कर रखा था। कैद तोड़कर आजादी का जश्न मनाया गया। गवर्नर जनरल केनिंग की आँखों से नींद गायब थी। कुँवर सिंह का भाई अमर सिंह तनिक भी कम न था कुँवर सिंह से। केनिंग के आदेश से ब्रिगेडियर डगलस 17 अक्टूबर 1858 को सात सेनापतियों के साथ सात हजार से अधिक सैन्यबल और एन्फील्ड राइफल्स लेकर चक्रव्यूह की योजना बनाकर जगदीशपुर की ओर कूच किया। उसकी योजना थी कि जगदीशपुर के सातों द्वारों को सात सेनापति सेनाओं के साथ बंद करके अमर सिंह को महल के भीतर ही मार डालें। क्रियान्वयन शुरु भी हुआ। छः द्वार छः सेनापतियों द्वारा घेर लिए गए। सातवें दार के सेनापति को द्वार तक पहुँचने में पाँच घंटे का विलम्ब हुआ या यूँ कहें कि वह अमर सिंह की तलवार के सम्मुख आना नहीं चाहता था। मुखवीरों द्वारा चौकन्ने अमर सिंह को पता चल गया कि उनकी स्थिति महाभारत के अभिमन्यु वाली हो गई है। लेकिन बड़े भाई को दिया हुआ वादा उनकी विपरीत परिस्थिति पर भारी था। उन्होंने सातवें रिक्त द्वार का रुख किया। फिरंगी हाथ मलते रह गए। डगलस ने चुने हुए घुड़वारों को व्यूह से निकलते हुए अमर सिंह के पीछे लगा दिया।
19 अक्टूबर को गोरों को सूचना मिली कि गन्ने के खेत में चार सौ सरदारों के साथ अमर सिंह छिपे हुए हैं। अंग्रेजी सेना ने चारों तरफ से घेरकर दूर तक मार करने वाली नई बंदूकों से ताबड़ तोड़ फायर झोका। दो चरणों में तीन लोगों को छोड़कर समस्त लोग वतन के नाम कुर्बान को गए। इन तीन लोगों में बाबू अमर सिंह भी थे। उसके बाद अमर सिंह ने कैमूर की पहाड़ियों में जाकर पुनः जाँबाजों को संगठित करना प्रारम्भ किया। गोरी सेना से झड़पें होती रहीं। अंग्रेजी हुकूमत का शिकंजा कसता जा रहा था। आजादी का आंदोलन ठंडा पड़ने लगा था। फिरंगियों के मोर्चे पहले से बहुत कम हो गए थे। अप्रैल से दिसम्बर तक अर्थात् पूरे सात महीने तक बड़े भाई को दिया वादा निभाते हुए यह अनूठा सपूत सदा के लिए अन्तर्ध्यान हो गया।
 “1857 का स्वातन्त्र्य समर” नामक पुस्तक में वीर सावरकर ने बाबू अमर सिंह को महान योद्धा और रणनीतिकार के रूप में इतिहास में अमर बतलाया है। जब-जब हम आजादी की लड़ाई का जिक्र करेंगे तब-तब हमें बिहार का जगदीशपुर याद आएगा और साथ ही याद आएँगे ये दो अतुलित योद्धा। हमारा शीश अपने पूर्वजों के बलिदान पर अनायास ही श्रद्धा से झुका रहेगा।
— डॉ अवधेश कुमार अवध

*डॉ. अवधेश कुमार अवध

नाम- डॉ अवधेश कुमार ‘अवध’ पिता- स्व0 शिव कुमार सिंह जन्मतिथि- 15/01/1974 पता- ग्राम व पोस्ट : मैढ़ी जिला- चन्दौली (उ. प्र.) सम्पर्क नं. 919862744237 [email protected] शिक्षा- स्नातकोत्तर: हिन्दी, अर्थशास्त्र बी. टेक. सिविल इंजीनियरिंग, बी. एड. डिप्लोमा: पत्रकारिता, इलेक्ट्रीकल इंजीनियरिंग व्यवसाय- इंजीनियरिंग (मेघालय) प्रभारी- नारासणी साहित्य अकादमी, मेघालय सदस्य-पूर्वोत्तर हिन्दी साहित्य अकादमी प्रकाशन विवरण- विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन नियमित काव्य स्तम्भ- मासिक पत्र ‘निष्ठा’ अभिरुचि- साहित्य पाठ व सृजन