ग़ज़ल
बेतरह आज यूँ मुस्कुराने लगे।
जो मिले ग़म हवा में उड़ानें लगे।
हाथ मेरा पकड़ जो चले कल तलक,
आज रस्ता मुझे ही बताने लगे।
मारने का इरादा उमर ने किया,
सरवरे दीं को लेकिन बचाने लगे।
जो परस्तार थे नफरतों के कभी,
गीत उल्फत के अब वो भी गाने लगे।
रास आये नहीं दिन सनम के बिना,
साथ में पर बड़ेे ही सुहाने लगे।
— हमीद कानपुरी