लॉकडाउन के प्रसंगश:
पूरी दुनिया में इसी सप्ताह नए-नए शब्दों का इज़ाद हुए व हो रहे हैं । भारत में ‘जनता कर्फ़्यू’ शब्द के ईजाद के बाद उनका क्रियान्वयन भी हुआ, जो कि 22 मार्च 2020 की रात्रि 9 बजे तक रही । राजस्थान सरकार ने 9 बजे रात्रि के बाद 31 मार्च तक के लिए पूरे राज्य में ‘लॉकडाउन’ की घोषणा की । इसतरह से यह आधिकारिक घोषणा कर राजस्थान पहला राज्य बन गया है । इसके बाद से इस शब्द का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है। ‘लॉकडाउन’ शब्द कहाँ से आई, यह पता नहीं ! किन्तु भाषाई लिहाज से यह शब्द अंग्रेजी या लैटिन भाषा की शब्दावली से निकली प्रतीत होती है । चीन और इटली में इस शब्द का इस्तेमाल हो चुका है।
भारत के संविधान में तीन तरह के ‘आपातकाल’ का उल्लेख है, जिनमें सरकारी फरमान के तहत विपदाओं की स्थिति में देशहित को देखते हुए आम जनताओं को, भीड़ इकट्ठे करने पर, हाट-बाज़ारों में जाने पर प्रतिबंधित किया गया है, जिनमें यात्रा, सिनेमा सहित प्रेस सेंसरशिप यानी वाक स्वतंत्रता पर तुषारापात भी शामिल हैं । सन 1975 के आपात को भारतीय इतिहास का काला अध्याय कहा गया है, जिनमें ‘पुलिस सरकार’ की ही चली । भारतीय दंड संहिता की धारा- 144, कर्फ़्यू, मार्शल लॉ इत्यादि का सख्ती से पालन-अनुपालन हुआ, किन्तु प्रति राज्यवार आदेशित ‘लॉकडाउन’ पद्धति ‘आपात व्यवस्था’ से भिन्न व्यवस्था है, जिनमें लोगों को उनकी नैतिकता से जोड़कर उन्हें देशहित ही नहीं, मानवहित के ख्याल से घर में ही रहने को हिदायत दिया गया है, इसमें अधिकार पर कर्त्तव्यों को प्राथमिकता दी गयी है । तभी तो अत्यावश्यक जरूरत की चीजों, यथा- विशुद्ध खाद्य पदार्थ, पानी, बिजली, दूध, दवाई, अखबार, बैंकिंग व पोस्टल ATM इत्यादि को इसमें शामिल कर इसे नैतिक बन्दी से बाहर रखा गया है । सड़क, गली-मोहल्लों में नहीं टहलना, पान-बीड़ी, सिगरेट के लिए चौक-चौराहे की भीड़ नहीं लगाना, हाट-बाजार, अनावश्यक यात्रा बन्द, धार्मिक स्थलों, अंतिम संस्कार को छोड़कर किसी प्रकार के समारोहों, इसे सहित मटरगश्ती के शौकीन लोगों पर KBC के जुमलेबाजी की तरह ‘लॉक’ लगा देना ही ‘लॉकडाउन’ है!
महामारी कोरोना वायरस COVID-19 की अतिसंवेदनशीलता को देखते हुए हर भारतीयों को जो देश में रह रहे हैं, इस ‘नैतिक’ फरमान को देशहित और जनहित व मानवहित में अवश्य अमल करना चाहिए । बहरहाल, देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी यह 31 मार्च तक लागू है, जिसे महामारी की भयावहता को देखते हुए बढ़ायी भी जा सकती है! एतदर्थ, ‘मैसेंजर ऑफ आर्ट’ के तर्क से सहमत हूँ !