कविता

साया भी जुदा हो रहा

कुछ करूं बातें पुरानी, कुछ नयी मैं कह रहा,
पहले विदा होती थी बेटी, अब बेटा भी हो रहा।
रह गयी शायद कमी कुछ, परवरिश में बच्चों की,
या तो घर पर ही तन्हां, या वृद्धाश्रम घर हो रहा।
बात अब किससे करें, सुख दुःख की किसको कहें,
आधुनिकता की अंधी दौड़ में, बेटा व्यस्त हो रहा।
हो गरीबी जब किसी घर, कौन किसको पूछता,
जीवन का चौथा पहर, साया भी जुदा अब हो रहा।

— अ कीर्ति वर्द्धन