अरुणाचल प्रदेश की सुलुंग जनजाति
सुलुंग अथवा सुलू अरुणाचल की एक महत्वपूर्ण आखेटक और खाद्य संग्राहक जनजाति है। ईस्ट कामेंग और कुरुंगकुमे जिले में इनकी प्रमुख आबादी निवास करती है। बहुत दिनों तक निशिंग जनजाति के लोग इनसे दास का काम लेते थे, इनका अलग कोई अस्तित्व नहीं था। खान-पान, रहन-सहन और सांस्कृतिक समानता के कारण इन्हें निशिंग (दफ़ला) ही समझा जाता था परन्तु निशिंग और तागिन जनजाति से समानता के बावजूद भाषा और संस्कृति की दृष्टि से सुलुंग एक अलग जनजाति है। इस जनजाति को प्रकाश में लाने का श्रेय श्री हैमनड्रेफ को जाता है जिन्होंने सन 1947 में सुलुंग लोगों की जीवन शैली का अध्ययन कर विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया। सन 1945-48 के बीच में श्री सी आर स्टोनर ने कई बार इस क्षेत्र का भ्रमण किया और सुलुंग जनजाति के बारे में जानकारी दी। इस जनजाति के लोग आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से अन्य जनजातियों की अपेक्षा पिछड़े हुए हैं। वे लोग बहुत दिनों तक कृषि कर्म से भी अनभिज्ञ थे और भोजन के लिए शिकार और जंगली कंद-मूल पर निर्भर थे। बाद में अपनी पड़ोसी जातियों को देखकर इन लोगों ने खेती करना सीखा। ये लोग भी झूम विधि से खेती करते हैं। जहां समतल जमीन है वहाँ पर स्थायी खेती भी की जाती है। खेतों में बीज बोने और फसल काटने का कार्य महिलाएं ही करती हैं। चावल इनका मुख्य उत्पादन है। मकई और कोदो भी उपजाए जाते हैं। सुलुंग लोग पशुपालन नहीं करते। सुलुंग लोगों की वेशभूषा और आवास निशिंग लोगों के समान ही होते हैं । घर बांस के बने होते हैं और उसकी छत फूस-पत्तों की बनी होती है। निशिंग समाज की तरह इनके पास एक सामुदायिक भवन होता है। सामुदायिक भवन का निर्माण और उपयोग दो-तीन परिवार करते हैं। चावल और मांस-मछली इस समाज का मुख्य भोजन है। जंगली कंद-मूल और जानवर के मांस भी ये लोग खाते हैं। स्थानीय किस्म की मदिरा अपोंग इनका अनिवार्य दैनिक पेय है। आबो तानी को सुलुंग समाज भी अपना पूर्वज मानता है। इस समुदाय की धार्मिक आस्था और क्रिया-कलाप एवं निशिंग जनजाति के धार्मिक विश्वासों में बहुत साम्य है। ‘वाएन्यी’ इस समाज का प्रमुख त्योहार है। इस पर्व का संबंध आबो तानी से है। त्योहार की तिथि का निर्धारण पुजारियों द्वारा किया जाता है। निश्चित तिथि को सभी लोग एक स्थान पर एकत्रित होते हैं और अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करते हैं। पुजारी मंत्रोच्चार करता है। पूजा-स्थल को बांस तथा फूल-पत्तों से सजाया जाता है तथा पर्याप्त मात्र में अपोंग, चावल और मांस तैयार किए जाते हैं। सभी कार्य पुजारी के नेतृत्व में होते हैं। इस अवसर पर सूअर की बलि दी जाती है। बलि चढ़ाये गए सूअर के आगे की बाई टांग पुजारी को दी जाती है तथा शेष भाग को पकाया जाता है। भोजन में सभी ग्रामवासी शामिल होते हैं। इस पर्व में नृत्य-गीत भी प्रस्तुत किए जाते हैं। पहले यह त्योहार व्यक्तिगत स्तर पर मनाया जाता था लेकिन आजकल समुहिक रूप से इस पर्व का आयोजन किया जाता है। सुलुंग समाज में मृतक के शवों को घर के नजदीक ही दफनाने की परंपरा है।