देश में गुरुकुल होंगे तभी आर्यसमाज को वेद प्रचारक विद्वान मिल सकते हैं
ओ३म्
परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में वेदों का ज्ञान दिया था। इस ज्ञान को देने का उद्देश्य अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न व उसके बाद जन्म लेने वाले मनुष्यों की भाषा एवं ज्ञान की आवश्यकताओं को पूरा करना था। सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारत काल पर्यन्त भारत वा आर्याव्रत सहित विश्व भर की भाषा संस्कृत ही थी जो कालान्तर में अपभ्रंस व भौगोलिक कारणों से अन्य भाषाओं में परिवर्तित होती रही और उसका परिवर्तित रूप ही लोगों में अधिक लोकप्रिय होता रहा। भारत में सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल के कुछ काल बाद तक जैमिनी ऋषि पर्यन्त ऋषि-परम्परा चलने से देश में संस्कृत का पठन पाठन व व्यवहार कम तो हुआ परन्तु काशी, मथुरा व देश के अनेक नगरों व ग्रामों में भी संस्कृत का व्यवहार व शिक्षण चलता रहा। तक्षशिला और नालन्दा आदि अनेक स्थानों में विश्वविद्यालय हुआ करते थे जहां प्रभूत हस्तलिखित ग्रन्थ हुआ करते थे जिन्हें विदेशी मुस्लिम आतताईयों ने जला कर नष्ट किया। इससे यह ज्ञात होता है कि भारत में संस्कृत का पठन-पाठन काशी, मथुरा, तक्षशिला एवं नालन्दा आदि अनेक स्थानों पर चलता रहा था। स्वामी शंकराचार्य जी दक्षिण भारत में उत्पन्न हुए। वह भी शास्त्रों के उच्च कोटि के विद्वान थे। आज भी उनका पूरे संसार में यश विद्यमान है। ऋषि दयानन्द के समय में भी काशी व मथुरा सहित देश के अनेक भागों में संस्कृत के अनेक विद्वान थे। वह शास्त्रीय सिद्धान्तों की दृष्टि से भले ही वेद की मान्यताओं से कुछ विषयों में भिन्न विचार रखते हों परन्तु संस्कृत भाषा से तो वह सब परिचित ही थे और संस्कृत में बोलचाल का व्यवहार करने की क्षमता भी उनमें थी। ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने अपने गृह प्रदेश गुजरात के टंकारा ग्राम के निकट लगभग 21 वर्ष की आयु तक संस्कृत भाषा में ही अध्ययन किया था। ऋषि दयानन्द के गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी ने भी हरिद्वार के निकट ऋषिकेश व कनखल आदि स्थानों पर संस्कृत का अध्ययन किया। ऋषि दयानन्द को मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से संस्कृत भाषा के व्याकरण व शास्त्रीय ग्रन्थों का अध्ययन कर ही ज्ञान की पूर्णता प्राप्त हुई थी। यहीं पर उन्हें स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से देश से अविद्या दूर कर वेद विद्या का प्रकाश व प्रचार करने की प्रेरणा मिली थी जिसको स्वीकार कर उन्होंने वेद प्रचार किया और इसी कार्य को सतत जारी रखने के लिये एक वेद प्रचारक संगठन आर्यसमाज की स्थापना की थी।
ऋषि दयानन्द जी ने 10 अप्रैल सन् 1875 को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। उन्होंने देश भर में घूम-2 कर वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का अपने व्याख्यानों सहित समय की आवश्यकता के अनुरूप ग्रन्थों के लेखन तथा शास्त्रार्थ, वार्तालाप, शंका-समाधान आदि के द्वारा प्रचार किया। चार वेद, 6 दर्शन, 11 उपनिषद एवं वेदानुकूल शुद्ध मनुस्मृति सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु एवं वेदों पर उनके भाष्य आदि ग्रन्थ वैदिक धर्मी आर्यसमाज के अनुयायियों के धर्म ग्रन्थ व उनका मान्य धार्मिक साहित्य हैं। वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से स्वतः प्रमाण एवं परम प्रमाण के शिखर आसन पर प्रतिष्ठित हैं एवं अन्य सभी ग्रन्थ परतः प्रमाण कोटि के ग्रन्थ हैं। आर्यसमाज विश्व से अज्ञान को दूर करने का सबसे प्रबल आन्दोलन है। वह मत-मतान्तरों की अविद्या को दूर करने के लिये विद्या के स्रोत तथा वैदिक धर्म एवं संस्कृति के मानक ग्रन्थ वेदों को स्थापित करना चाहता है। ऋषि दयानन्द व उनके अनुयायी विद्वानों ने वेदों का भाष्य कर एवं वेदों पर अनेक ग्रन्थों की रचना कर वेदों को सब सत्य विद्याओं का ग्रन्थ सिद्ध किया है। ऋषि दयानन्द ने अविद्या के नाश तथा विद्या वृद्धि का जो आन्दोलन आरम्भ किया था वह अभी अघूरा है। अतः देश व विश्व के लोगों को ईश्वर व जीवात्मा सहित सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान एवं दैनन्दिन धार्मिक परम्पराओं से परिचित कराने के लिये यह वेद प्रचार का कार्य सतत चलता रहना अत्यावश्यक है। इसके लिये वेदों के विद्वानों, धर्म-प्रचारकों तथा कर्मकाण्डी पुरोहितों की आवश्यकता अतीत में भी थी तथा हमेशा रहेगी।
महाभारत युद्ध के बाद वैदिक विद्वानों की कमी के कारण ही पूरे विश्व में अज्ञान व पाखण्ड फैला है। यदि वेदों के विद्वान होते और वेद प्रचार का कार्य करते तो अविद्यायुक्त कोई मत-मतान्तर उत्पन्न न होता। धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतु वैदिक धर्म के प्रचारक विद्वान तथा पुरोहित उत्पन्न करने की शिक्षण संस्था का नाम ही गुरुकुल है। गुरुकुलों में वेदों की संस्कृत भाषा का आर्ष व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य सहित निरुक्त व इतर वेदांगों का अध्ययन कराया जाता है। जहां आर्ष व्याकरण व वेदांगों का अध्ययन नहीं होता उस शिक्षण संस्था को गुरुकुल कदापि नहीं कहा जा सकता। यह कार्य केवल आर्यसमाज ही करता है। भारत सरकार व प्रदेशों की सरकारें गुरुकुल शिक्षा के प्रचार में सहयोग नहीं करती और न ही संसार का अन्य कोई देश, उसकी संस्थायें व उसके लोग वेद व वेदांगों की शिक्षा देते हैं। यह आज के समय की बड़ी विडम्बना है। अतः वेदों का प्रचार, जो मनुष्य जाति के कल्याण का पर्याय है, उसे चलाते रहने के लिये वैदिक विद्वानों को तैयार करने के लिये गुरुकुलों का महत्व निर्विवाद है।
जिस तरह से अंग्रेजी व अन्य भाषाओं को पढ़ाने के लिये उस भाषा की अक्षर माला के उच्चारण एवं ज्ञान सहित व्याकरण के ग्रन्थों का अध्ययन कराया जाता है उसी प्रकार से गुरुकुल एक आवासीय शिक्षा प्रणाली है जहां आचार्य न केवल वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णोच्चार शिक्षा सहित पूर्ण व्याकरण का अध्ययन कराते हैं अपितु सभी शास्त्रीय ग्रन्थों को पढ़ाते भी हैं। इसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि ज्ञान व विज्ञान का पूर्ण अध्ययन कराया जाया परन्तु प्रमुखता भाषा और व्याकरण को ही दी जाती है। ऐसा होने पर ही मनुष्य पूर्ण विद्वान बनता है। हम जानते हैं कि हमारे गुरुकुलों के पास साधनों का अभाव है। सरकार अपने सरकारी पाठ्यक्रम तथा अन्य मतों के स्कूलों को तो भरपूर आर्थिक सहायता देती हैं परन्तु वैदिक गुरुकुलों के साथ आजादी के बाद से पक्षपात होता आ रहा दीख रहा है। गुरुकुलों ने अतीत में देश को अनेक वैदिक विद्वान तथा राजनेता भी दिये हैं। पं. प्रकाशवीर शास्त्री, पं0 शिवकुमार शास्त्री, स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती जी आदि सांसद गुरुकुलों की ही देन थे। पत्रकारिता, अध्यापन, संस्कृत का प्रचार, देश की रक्षा आदि सभी क्षेत्रों में गुरुकुलों के विद्यार्थियों वा स्नातकों ने अपनी योग्यता व क्षमताओं का परिचय कराया है। इसके साथ ही गुरुकुलों ने आर्यसमाज को भी वेद प्रचारक वक्ता व विद्वानों सहित पुरोहित, अधिकारी व अनेक आई0पी0एस0 एवं शिक्षाविद दिये हैं। आर्यसमाज की विचारधारा के प्रचार के लिये स्थापित डी.ए.वी. स्कूल व कालेजों ने देश की उन्नति में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। इस संस्था में शिक्षित विद्यार्थियों ने देश सेवा, प्रशासन व राजनीति आदि का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां अपनी सेवायें न दी हों। आर्यसमाज के लोग शाकाहारी रहकर तथा सत्कार्यों को करके देश का हित व कल्याण करने में अग्रणीय रहते हैं। चरित्र व नैतिकता की जो शिक्षा आर्यसमाज के गुरुकुल, डी.ए.वी विद्यालय व स्वयं आर्यसमाज के विद्वान अपने सत्संगों व कार्यक्रमों में देते हैं वैसा प्रचार हमें देश की अन्य धार्मिक संस्थाओं में कहीं देखने को नहीं मिलता। आर्यसमाज को इस बात का गौरव प्राप्त है कि यही एकमात्र संस्था है जो देश व समाज से अज्ञान, पाखण्ड, अन्धविश्वास तथा कुरीतियों को दूर करने सहित सामाजिक दोषों को दूर करने का प्रयत्न करती है।
परमात्मा ने यह सृष्टि जीवों को उनके पूर्वजन्म के कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल के भोग करने तथा वेदाचरण से ईश्वर का साक्षात्कार कर जन्म-मरण के बन्धनों से छूट कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये बनाई है। संसार में धर्म के नाम पर अनेक मत-मतान्तर प्रचलित हैं जो सभी अविद्यायुक्त एवं अपूर्ण हैं। यह मत मतान्तर जीवों के कर्म-फल सिद्धान्त तथा कर्मों के बन्धनों से मुक्त होकर जीवात्मा की मोक्ष प्राप्ति के सिद्धान्त व उसके साधनों के ज्ञान से भी सर्वथा अनभिज्ञ हैं। वेद ही संसार के सभी मनुष्यों का एकमात्र प्रमुख स्वतः प्रमाण धर्मग्रन्थ है। इस ग्रन्थ व इसके सत्य अर्थों की आवश्यकता ऋषियों इतर ग्रन्थों दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति सहित ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि आदि की आवश्यकता सृष्टि की प्रलय तक रहेगी। वेद व सत्य-ज्ञान के प्रचार का यह कार्य गुरुकुलों में शिक्षित संस्कृत व वैदिक साहित्य के उच्च कोटि के विद्वान ही कर सकते हैं। अतः गुरुकुलों की आवश्यकता व उनका महत्व निर्विवाद है और सदा बना रहेगा। इनकी रक्षा व पोषण प्रत्येक मनुष्य, सामाजिक संस्था सहित सभी सरकारों का भी परम कर्तव्य है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो समाज में जो नैतिक गुणों से सम्पन्न आदर्श नागरिकों की आवश्यकता होती है, वह कभी पूर्ण नहीं होगी।
गुरुकुलों से शिक्षित विद्वान, आचार्य एवं वेद प्रचारक विद्वान हमें निरन्तर मिलते रहें, इसके लिये हमें अपना जीवन समर्पित करना होगा और अपनी सन्तानों को गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति से शिक्षित व दीक्षित कर उन्हें उसका सहयोगी व प्रशंसक बनाकर वेद प्रचार के कार्य में लगाना होगा। हमारे शासकों व राजाओं को भी अपना धर्म व कर्तव्य पालन करते हुए वेद एवं समस्त वैदिक साहित्य की रक्षा करने सहित वैदिक गुरुकुलीय शिक्षा पद्धति का पोषण व संवर्धन करना चाहिये और उसके लिये अपना तन, मन व धन लगाना चाहिये। यदि किसी भी स्तर से वेद व वेदाध्ययन की उपेक्षा की गई, जैसी कि सरकारी व वेदेतर मतावलम्बियों द्वारा की जा रही है, तो इस कारण से वैदिक धर्म व संस्कृति सदा के लिए विलुप्त हो सकती है जिससे भावी पीढ़ियां ईश्वरीय वेदज्ञान तथा इसके द्वारा प्रचारित सत्य सिद्धान्तों पर आधारित मानव धर्म व संस्कृति से वंचित हो जायेंगे। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह हमें व सब देशवासियों सहित हमारे शासक वर्ग के लोगों को सद्बुद्धि प्रदान करें जिससे वह अपने कर्तव्य को जानकर वेदों के प्रचार प्रसार में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायें। देश में वैदिक सिद्धान्तों के पोषण से युक्त शासन व्यवस्था, जैसी वैदिक काल में होती थी, लागू होनी चाहिये जिससे देश का प्रत्येक मनुष्य अज्ञान, अन्याय व अभाव से मुक्त होने के साथ अभय को प्राप्त हो सके। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य