काव्य-मंच
काव्य-मंच (मापनी:- 2122 2122 212)
काव्य मंचों की अवस्था देख के,
लग रहा कविता ही अब तो खो गयी;
आज फूहड़ता का ऐसा जोर है,
कल्पना कवियों की जैसे सो गयी।
काव्य-रचना की जो प्रचलित मान्यता,
तोड़ उनको जो रचें वे श्रेष्ठ हैं;
नव-विचारों के वे संवाहक बनें,
कवि गणों में आज वे ही ज्येष्ठ हैं।
वासनाएँ मन की जो अतृप्त हैं,
वे बहें तो काव्य में रस-धार है;
हो अनावृत काव्य में सौंदर्य तो,
आज की भाषा में वो शृंगार है।
रूप की प्रतिमा अगर है मंच पर,
गौण फिर तो काव्य का सौंदर्य है;
फब्तियों की बाढ़ में खो कर रहे,
काव्य का ही पाठ ये आश्चर्य है!
चुटकलों में आज के श्रोता सभी,
काव्य का पावन रसामृत ढूंढते;
बिन समझ की वाहवाही करके वे,
प्राण फूहड़ काव्य में भी फूंकते।
मूक कवि, वाचाल सब लफ्फाज हैं,
काव्य के सच्चे उपासक खो रहे;
दुर्दशा मंचों की ऐसी देख कर,
काव्य-प्रेमी आज सारे रो रहे।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया