ग़ज़ल
मुनासिब आशियाना चाहता है।
सुकूं के पल बिताना चाहता है।
वो खुलकर मुस्कुराना चाहता है।
नहीं कोई ख़ज़ाना चाहता है।
दिवाली खुल मनाना चाहता है।
जहां को जगमगाता चाहता है।
खुदी को आज़माना चाहता है।
नया भारत बनाना चाहता है।
हरिक पल काटता रहता शजर जो,
वही मौसम सुहाना चाहता है।
सहर से शाम तक रहता परेशां,
न जाने क्या बनाना चाहता है।
— हमीद कानपुरी