राजनीति

बंगाल की क्रांति

स्वतंत्रता से पूर्व भी बंगाल को क्रांति की जन्मभूमि कहा गया। अनेकों क्रांतिकारियों ने बंगाल से ही राष्ट्रीय धारा में देश की स्वतंत्रता आंदोलन में अपनी आहुति दी। क्रांति का यह भाव बंगाली चरित्र का एक अंग बन गया था, जिसे अन्यथा नही लिया जा सकता। आज स्वतंत्रता के बाद बदली हुई परिस्थितयों में एक बार पुनः क्रांति का यही भाव बंगाल में पुनः जाग्रत हुआ है। अवसर है, ममता बनर्जी की तृणमूल सरकार के अत्याचारों और विध्वंसात्मक राजनीति के अंत की ओर बढ़ते जनाधार का। भाजपा विगत कई वर्षों से बंगाल में संघर्ष का नवीन पर्याय बनी हुई है, उसके अनेक कार्यकर्ताओं की हत्या हुई। जिस प्रकार अनेक अवसरों पर हिन्दू समाज के साथ हुए तुष्टिकरण के व्यवहार के कारण जन जन में विद्रोह के बीज ने जन्म लिया, इससे भाजपा को इस उपेक्षित जनाधार के रूप में अपनी जमीन बनाने का अवसर मिला। बंगाल प्रभारी भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के साथ अनेकों बार दुर्व्यवहार और गिरफ्तारी के चलते बंगाल पुलिस की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठे। पुलिस की उपस्थिति में ही कई बार इन पर हमले का प्रयास हुआ। विगत दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की बंगाल रैली के दौरान उनकी रैली पर टीएमसी कार्यकर्ताओं द्वारा हमले के बाद कैलाश विजयवर्गीय की सुरक्षा बढाई गई। निश्चित रूप से आने वाला बंगाल चुनाव ऐतिहासिक होने वाला है, यह सत्ताधारी तृणमूल की छटपटाहट बता रही है। जिस प्रकार भाजपा ने बंगाल को टॉप लिस्ट में रखते हुए अपने अन्य भी कई कद्दावर नेताओ को भेजा है इससे आने वाले चुनाव के परिणाम भाजपा के लिए सुखद हो सकते है। इसे जनाधार की क्रांति भी कहें तो अति श्योक्ति नही होगी, क्योंकि विगत कई वर्षों से ममता सरकार में तुष्टिकरण की राजनीति देखती आ रही बंगाल की जनता अब इससे छुटकारा चाहती है। ग्रहमंत्री अमित शाह की रैली में उमड़ा जनसैलाब यह दिखा चुका है कि अब बंगाल का मूड बदलने वाला है, फिर यह क्यों न बदले ? अकेला बंगाल ही भारत का ऐसा प्रदेश है जहां सरकार की तानाशाही चलती है, राष्ट्रीय अध्यक्ष की रैली पर हुए पथराव व अराजकता के संबन्ध में केंद्र सरकार व ग्रह मंत्रालय ने बंगाल के डीजीपी व सचिव को तलब किया था परन्तु तानाशाही सरकार के दबाव के चलते ये दिल्ली पहुचें ही नही। अब देखते है इस पर केंद्र सरकार क्या एक्शन लेती है, नोकरशाही का जितना दुरपयोग ममता सरकार ने बंगाल में किया उतना शायद ही भारत के इतिहास में कहीं हो रहा होगा । यदि कहीं हिंसा या खून खराबे की सूचना भी पुलिस को मिलती है और पता चलता है कि तृणमूल कार्यकर्ता ही यह हिंसा कर रहे है तो पुलिस कोई कार्यवाही नही करती। ऐसा हर चुनाव, आंदोलन, रैली में देखा जा  चुका है। पुलिस के इस व्यवहार का मूल कारण तृणमूल सरकार की तानाशाही नीति है। जिसने सारे शासन प्रशासन को पंगु बना रखा है।

ममता ने अपने सनकीपन में केवल जनाधार ही खोया ऐसा नही, उसने अपने कई विश्वसनीय व्यक्तित्व भी खोए है। मुकुल रॉय जैसे तृणमूल संगठन के सबसे बड़े कर्ताधर्ता के जाने के बाद अब सुवेंदु अधिकारी जैसे क्षमतावान नेता का भाजपा में जाना तृणमूल के लिए खतरे की घण्टी ही है। ध्यान रहे कि सुवेंदु तृणमूल में ममता के बाद सबसे अधिक लोकप्रिय नेता माने जाते थे। वाम मोर्चे से लड़ाई में सुवेंदु ने बतौर युवा मोर्चा अध्यक्ष अहम भूमिका निभाई थी। उनकी पूरे बंगाल में पहचान है, कार्य है, संपर्क है। सुवेंदु का आना और भाजपा की ओर से तय 200 प्लस के लक्ष्य ने तृणमूल के अंदर खलबली मचाने का काम किया है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक ही झटके में भाजपा ऐसे कई क्षेत्रों में मजबूत उम्मीदवार और संगठनकर्ता खड़े करने में सक्षम हो गई है, जहां फिलहाल उसकी उतनी पहचान नही थी। अब टक्कर वास्तव में बराबरी की होगी।

क्योंकि भाजपा ने कैलाश विजयवर्गीय को फ्री हैंड दिया हुआ है, इसके साथ ही जमावट के लिए अन्य नेताओं को भी लगाया है, लगता है ममता का यह अभेद्य किला अब ढहने के करीब है, खेर यह तो बंगाल की जनता तय करेगी की वह तानाशाही सत्ता को फिर से चुनती है या क्रांति के अपने चरित्र को बरकरार रखती है।

— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश