क्या सिर्फ कहने भर की
रह गयी ये बात अब
संस्कार देश की पूंजी है….
गमगीन आँखों में आँसूं लिये अपने परिजन को करने विदा गए सगे संबंधी
और श्मशान की छत धराशायी
होने से कई जान गंवा बैठे कई हुए घायल
क्या भरना बड़ा खामियाजा उन्हें लालच , भ्रष्टाचार में लिपटे उन लोगों के कारण जिन्होंने किया उसका निर्माण कार्य
चंद रुपयों की खातिर कर लेते कैसे सौदा ये बेईमान मासूम की जानों का
कर घटिया निर्माण कभी पुल, फ्लाईओवर , सड़क, स्कूल , घर और अब तो छोड़ा नहीं श्मशान घाट भी
कैसे संस्कार ये कैसी देश की पूंजी
वहीं कोई करता हुंकार भर धर्म का प्रचार
जिस से बस भरती नफरत और द्वेष
कहीं मनमानी बस कर लागू नियम कानून
कड़कती ठंड , तेज़ हवा, बारिश में सड़कों पर महीने भर से बैठे किसान हर उम्र के
बेहाल
पर अड़े हैं शासक और शासन दोनों ही
क्यों थोपना यूँ लोगों पर अपनी निजी सोच बैठ ऊंची कुर्सी पर
ऐसे क्या चलेगा देश इन खोखले संस्कारों पर बन पूंजी चंद हाथों की
जहां कोई वर्ग ,न वृद्ध, न युवा, न स्त्री, न पुरूष कोई भी खुशहाल नहीं
हर तरफ बस बेबसी, लाचारी
और दुहाई
ऐसे में कैसे संस्कार बने देश की पूंजी
जहां कोई भी रौंद दे इज़्ज़त
कर मनमानी
न देखे मासूम बचपन, न युवा , न प्रौढ़
बस अंधा उन्माद , अंधा खुमार
जिसने किये कई बड़े छोटे घिनौने कांड
….इस तरह बस तरफ है अराजकता, बदहाली जिसमें
गम हुई सभ्यता, संस्कार, इंसानियत।।
— मीनाक्षी सुकुमारन