कविता – चाँदनी
एक दिन निहार रही थी
सुषमा चाँदनी की
कानों में चुपके से कह गया चाँद –
“तुम हो मेरी चाँदनी। “
सकुचाई और शर्माई मैं
हँस कर बोली –
“क्या मैं हूँ तुम्हारी चाँदनी?
वहाँ चाँदनी की शीतलता,
यहाँ मानव-मन की दुर्बलता।
वहाँ परमार्थ का प्रकाश,
यहाँ स्वार्थ का उन्माद।
“क्या मैं हूँ तुम्हारी चाँदनी ? “
तनिक चूमकर , सहलाकर बोला चाँद –
“झाँक कर देख़ो अपना हृदय
चमत्कृत हो रहा है चाँदनी सम
जो अंश है परमात्मा का सुन्दरतम ।
तुम ही हो मेरी चाँदनी।
पहचानो तुम मेरे उस अंश को,
जो तिरोहित है तुममें
हे ! मेरी प्रिय प्रियतमा,
अंतर्मन के प्रकाश से
बना दो इस सृष्टि को अनुपम ।
उठो, जगाओ अपने मन की चाँदनी,
हाँ, तुम ही हो मेरी चाँदनी। “
— डॉ अनीता पंडा, शिलांग