सजीवन साहित्य
साहित्य से सुसंचालित है समाज ! जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है, उसका साहित्य भी वैसा ही होता है । जातियों की क्षमता और सजीवता यदि कहीं प्रत्यक्ष देखने को मिल सकती है, तो उनके साहित्य -रूपी आईने ही में मिल सकती है।
इस आईने के सामने जाते ही हमें तत्काल मालूम हो जाता है कि अमुक जाति की जीवनी -शक्ति इस समय कितनी और कैसी है, साथ ही भूतकाल में कितनी और कैसी थी ? आप भोजन करना बंद कर दीजिए, आपका शरीर क्षीण हो जाएगा और कदाचित नाशोन्मुख होने लगेगा !
इसीतरह आप साहित्य के रसास्वादन से अपने मस्तिष्क को वंचित कर दीजिए, वह निष्क्रिय होकर धीरे -धीरे किसी काम का न रह जाएगा । सच ही, हमारी सामाजिक स्थिति -गति का प्रतिबिंब साहित्य में दिखाई देता है और साहित्य का प्रभाव हमारे मन और मस्तिष्क पर पड़ता है।
यथा-
‘सुंदरता’ तो सिरफ़ ‘जुगनूँ’ है,
अभी भक -भक,
तो अभी ही गायब !
मुझे तो….
असुन्दरता यानी कदर्य से प्यार है !
फिर-
दाढ़ी के बाल सफेद होने
शुरू हो गए हैं,
और तब कहीं मेरी जवानी
अंकुरित हुई है !
एवं
जब गुरु द्रोण नहीं मिले,
तब एकलव्य ने खुद के भीतर
टैलेंट पैदा करके क्या बुराई की ?
क्या खुद की प्रतिभा को
बाहर निकालना अपराध है?
फिर-
एक बात पूछ लूं…..
‘रात’ में जन्म लेनेवाले व्यक्ति
अपना ‘जन्मदिन’ मनाएंगे
या ‘जन्मरात’ !