देवी नहीं, मानवी ही समझो
देवी नहीं, मानवी ही समझो, देवी कहकर बहुत ठगा है।
बेटी, बहिन, पत्नी, माता का, हर पल नर को प्रेम पगा है।।
बेटी बनकर, पिता को पाया।
पिता ने सुत पर प्यार लुटाया।
भाई पर की, प्रेम की वर्षा,
पत्नी बन, पति घर महकाया।
पराया धन कह, दान कर दिया, कैसे समझे? कोई सगा है।
देवी नहीं, मानवी ही समझो, देवी कहकर बहुत ठगा है।।
जन्म लिया, घर समझा अपना।
पराया धन कह, तोड़ा सपना।
पोषण, शिक्षा, भिन्न-भिन्न दी,
फिर भी पिता, भाई था अपना।
मायके में कभी वारिस ना माना, परंपरा विष प्रेम पगा है।
देवी नहीं, मानवी ही समझो, देवी कहकर बहुत ठगा है।।
अपना घर, ससुराल में आई।
यहाँ भी समझी गयी पराई।
बात-बात में ताने सुनाकर,
अपने घर से क्या है लाई?
माय के में भी अपना नहीं था, ससुराल भी अपना, नहीं लगा है।
देवी नहीं, मानवी ही समझो, देवी कहकर बहुत ठगा है।।