लघुकथा – “देहदान”
सुभाष बाबू ने अपने देहदान की घोषणा कर दी।उन्होंने घोषणा -पत्र पर हस्ताक्षर कर देहदान की सारी कार्यवाही पूरी कर ली थी। उनके घर वाले हैरान परेशान थे कि पता नहीं बाबूजी को क्या हो गया। अभी तो वे भले चंगे एकदम स्वस्थ हैं फिर उमर भी अभी नहीं हुई है ।अभी तो पचास ही पार हुई है।
पत्नी ने पूछा,” क्यों जी, बैठे -ठाले तुम्हें क्या सूझी कि देहदान का फार्म भर आये? क्या हुआ तुम्हें? कोई बीमारी वगैरह तो तुम्हें नहीं है। फिर अचानक से यह क्यों? मुझे तो सच में बड़ी घबराहट हो रही है।”
पत्नी की बातें सुनकर सुभाष बाबू ने बड़े धैर्य के साथ शांत स्वर से कहा,”अरे भागवान! घबराने वाली कोई बात नहीं है। हजारों लोग अपना देहदान कर रहे हैं।बस मेरा भी मन किया ।”
पत्नी ने कहा , “नहीं जी, मेँ आपको अच्छी तरह जानती हूँ। बताइये न?”
सुभाष बाबू ने रुंधे गले से कहा,” आजकल के बेटे -बहु का बर्ताव बुजुर्गों के प्रति कैसा है ।यह किसी से छुपा नहीं है।हमारा बेटा तो अभी बड़ा आज्ञाकारी है।अभी तक का जीवन ईश्वर की कृपा से सुखद रहा पर आगे बुढ़ापा कैसे रहेगा क्या पता? तुम्हें पता है ?फ्लैट नंबर छप्पन में रहने वाले वर्मा जी के बेटे विदेश में बस गए। पत्नी तो काफी साल पहले ही दुनिया छोड़ कर चली गई है। बेचारे अकेले रहते थे। उन्होंने अपने देहदान की घोषणा इसलिए की थी ताकि क्रियाकर्म, अंतिम संस्कार वगैरह का कोई झंझट ही न हो। वे बेटों को डिस्टर्ब नहीं करना चाहते थे।”
तभी उनकी बात सुन रहे बेटे ने रुआंसे स्वर से कहा,”पापा, आपकी सोच अपने स्थान पर सही है पर सभी अंगुलियां एक जैसी नहीं होतीं। आपने भी दादा जी की बड़ी सेवा की है। मेँ यह बचपन से देखता आया हूँ। पहले आप दादा जी को भोजन करवाते थे और बाद में आप भोजन करते थे। पितृ भक्ति तो मैंने आप ही से सीखी है।आपने अपना कर्तव्य निभाया।अब मेरा कर्तव्य है कि में आप लोगों की सेवा -शुश्रुषा करूँ। आप निश्चिन्त रहिये।”
बेटे की बात सुनकर सुभाष बाबू को लगा कि अभी भी ‘ श्रवण कुमार ‘ जिन्दा है।
— डॉ. शैल चन्द्रा