आहत वतन
हिंसा से धूमिल हुआ, लाल किले का गर्व।
देशद्रोह की अग्नि से, झुलस गया एक पर्व।।
पुलिस, प्रशासन मौन था, शांत रहा तब तंत्र।
गद्दारों ने अवसर का, पर्व चुना गणतंत्र।।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एक तरफा संग्राम।
कर्तव्यों को रोंदकर, किये घृणित सब काम।।
धैर्य, शौर्य को दे गये, प्रबल चुनौती लोग।
आन्दोलन की आड में नित-नित नये प्रयोग।।
शत्रु के अनुरुप ही, बदल रहे थे स्वर।
बिके हुये कुछ लोगों की, गयी आत्मा मर ।।
आन्दोलन के नाम पर, खेला नंगा नाँच।
षडयंत्रों को समझे सब, साँच को कैसी आँच?
भीड इकट्ठी कर रहे, आन्दोलन दे नाम।
मुद्दे पीछे रह गये, क्या होगा परिणाम?
भद्र भयानक हो गये, हिंसक करुणानन्द।
इनका प्रेरित लक्ष्य था, बढे विकट अब द्वन्द।।
धन की आयी बाढ तो, सजे सुनहरी मञ्च।
कृतघ्नता स्पष्ट थी, दिख गये सभी प्रपंच।।
गांधी हिंसा सह रहे, राजघाट असमर्थ।
प्रबल स्वार्थी तत्व सब, हुई अहिंसा व्यर्थ ।।
परिभाषित फिर से करो, आन्दोलन का रुप।
कर्तव्यों का बोध हो, ऐसा रचो स्वरूप।।
राष्ट्र प्रेम के ध्येय से, राष्ट्र बने बलवान ।
तब है सार्थक बोलना,जय जवान जय किसान ।।