त्रासदियों का दौर… दिलों को दिमाग से सोचने को प्रेरित करता काव्य संग्रह
त्रासदियों का दौर- डॉ अमिताभ शुक्ल जी का काव्य संग्रह है। डॉ अमिताभ शुक्ला ने सागर विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर उपाधि एवं विश्वविद्यालय अनदुान आयोग की शोध- वृति के पश्चात, पीएच.डी कर 80 के दशक से वहां अध्यापन कार्य प्रारंभ किया।7 किताबें एवं100से अधिक शोध पत्र विभिन्न शोध जर्नल्स में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रस्तुत किए हैं।
विकास के मुद्दे पर उनकी किताब को भारतीय सरकार के योजना आयोग द्वारा कौटिल्य पुरस्कार( 1994) में प्राप्त हुआ।आर्थिक गतिविधियों पर पैनी दृष्टि रखने वाले डॉक्टर अमिताभ शुक्ल को कोरोना काल ने इतना व्यथित किया कि अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करने वाला दृढ़ व्यक्तित्व मोम बनकर काव्य की धारा में बह गया।
इसी धारा में बहते हुए जन्म हुआ…….. एक काव्य संग्रह का” त्रासदियों का दौर”… महान अर्थशास्त्री से काव्य शास्त्री बने ।डॉ अमिताभ शुक्ल जी ने कोरोना काल में एक व्यक्ति, एक समाज और एक देश की मानसिक स्थिति का उद्घाटन करते हुए काव्य का सृजन किया है। इस काव्य संग्रह में 30 कविताएं हैं। और यह सभी कविताएं त्रासदी काल कोरोना मे हर आम- खास के उदगारों को व्यक्त करती हैं।
यह कविताएं वर्तमान त्रास और त्रासदी के दौर से उपजी हैं। इनमें अभिव्यक्त पीड़ा और भावनाएं उन विसंगतियों से उत्पन्न हुई है जो समाज प्रशासन जनजीवन मानवीय रिश्तो और संबंधों में व्याप्त है और इस त्रासदी ने इन्हें अधिक तीव्रता के साथ अनुभव कराया है जो पीड़ा कवि हृदय को अनुभव हुई वह इन कविताओं में कवि ने लक्षित किए हैं।
शुक्ल जी की कविताओं में कविता ने दिमाग से होकर हृदय को छुआ है। जीना और मरना अपने देश में कविता के माध्यम से कवि ने अपने देश के प्रति अगाध प्रेम को प्रकट किया है और दूसरे देश में रहकर जब अपने देश की याद आती अपने मित्रों की याद आती है तो वह कितना पीड़ादायक होता है मजबूरियों के बस आर्थिक कारणों से दूसरे देशों में जाना तो पड़ता है लेकिन जो टीस अपने देश की वह भीतर ही भीतर तोड़ती रहती है इसी का कवि हृदय ने वर्णन किया है।
“अपने सपने” नामक कविता में कवि ने सपनों का महत्व बताते हुए यह समझाने की कोशिश की है कि सपने फलीभूत होते तभी अच्छे लगते हैं जब उन सपनों में अपने हो और उन सपनों के पूरा होने की खुशी में अपनेआप भी साथी हो वरना उन सपनों का कोई कोई मूल्य नहीं रह जाता। और जीवन की इस दौड़ में मिलते और बिछड़ जाते सपनों में कितने अपने सपनों की तरह बिछड़ जाती है और उसकी पीड़ा को कवि ने अपनी अगली कविता फरेब और जिंदगी का खेल में बड़ी बखूबी से व्यक्त किया है। जिसमें कभी नहीं यह व्यक्त करने की कोशिश की है कि जिंदगी का खेल एक फरेब -सा लगता है लोग सभी इसी में मशगूल हैं और जिंदगी के फरेबों के साथ जीवन को जीते हुए सभी को लगता है कि अब उसके पास समय ही कितना बचा है कि वह किसी से शिकायत करें क्योंकि ऐसा समय आ चुका है कि अब किसी से शिकायत करना व्यर्थ है क्योंकि अब हमारा समाज ऐसे समय से निकल रहा है जहां सब समझदार है और सब अपनी अपनी परिस्थितियों के अनुसार जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। आप किसी को गलत नहीं कह सकते क्योंकि हर कोई अपनी जगह पर सही है। और अकेलेपन की यह त्रासदी ही जीवन को फरेबी बना रही है।
पीड़ा दे रही इन सभी परिस्थितियों से परे कवि कभी-कभी प्रकृति में सकून तलाश करने की कोशिश में बारिश को देखते हुए उठे भाव हृदय में रोमांच पैदा होता है।जो बारिश के प्रति भाव उत्पन्न हुए हैं” बारिश इसलिए भाती है” मैं व्यक्त किए हैं कैसे बारिश में धरती और आकाश एक माध्यम से मिल जाते हैं। बारिश की बूंदे कैसे प्रेमी हृदय में फिर से प्रेम स्मृतियों के बीज पुलकित कर रही है। बारिश में फिर से स्मृतियां घनीभूत हो रही हैं जो त्रासदियों को कुछ पल के लिए दिलों- दिमाग पर हावी होने से बचा रही हैं।
लेकिन फिर भी मानवी मन किसी से बात करने के लिए और आसपास फैले अविश्वास की पीड़ा को व्यक्त करने वाली कविता ….”बात करने को तरसती है जुबान” में बहुत सुंदर अभिव्यक्ति और पीड़ा को व्यक्त किया है विकास का यह कैसा विधान है जिसमें कवि ने बताने की कोशिश की है कि आज जहां “तकनीकी समाज इतना विकसित हो गया है आज आदमी को आदमी से ही खतरा हो गया है”।
कविता “कोरोना कोहराम करोड़ों में” तीन “क “बहुत सुंदर वर्णन करते हुए। समाज को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त किया है।
खामोशियों का दौर कविता में बहुत सुंदर खामोशी का चित्रण किया है क्योंकि इस दौर में हमारा समाज फोन तक सीमित होकर रह गया सभी कामकाज स्मार्टफोन से जहां हो रहे थे बच्चों की शिक्षा स्मार्टफोन से बच्चों को मनोरंजन भी स्मार्टफोन से प्राप्त हो रहा था तो ऐसे में फोन के साथ लगाव सबका लाजमी था ।लेकिन वह लोग जिन्हें फोन में सकून नहीं मिलता वह किसी से बात करना चाहते हैं लेकिन अपने आसपास उन्हें ऐसा नहीं मिल पाता जिससे बात करें क्योंकि हर कोई सुनने को तैयार नहीं है अगर हम किसी को सुनाते हैं तो क्या दूसरा भी हमारी बात सुनने का इच्छुक है या उस बात को गलत समझ कर क्या उसका क्या अर्थ निकालेगा इस डर से हम अपने मन की बात नहीं कह पाते अपनों से भी तो यह जो भीतर की खामोशी है यह पल -पल जब तक कि यह सकारात्मक के साथ ना जुड़ पाए मनुष्य को बहुत खोलती है ।तो शायद यही वजह थी कि उस खामोशी को कवि ने काव्य के रूप में प्रवाहित किया है यह संदेश दिया है उन लोगों से बात कीजिए जो आपको सुनना चाहते हैं।
मानव सभ्यता पर अभिशाप में कवि ने हिरोशिमा नागासाकी का दंश, ईबोला के पीड़ित गांधी जी की शहीदी सूली पर चढ़े ईसा और गोली खाए हुए मार्टिन लूथर किंग की शहीदी को शर्मसार बताते हुए मानव सभ्यता के लिए अभिशाप बताया है विकास की एक सतत प्रक्रिया है।
सभ्यता के विकास में इन लोगों के योगदान और सभ्यता को आगे ले जाने में भारत एक दिन विश्व गुरु की भूमिका निभाएगा ।”अर्थशास्त्र “कविता में पैसे के महत्व को बताते हुए मानवीय भाव प्रकट किए हैं कि अर्थ के बिना जीवन में जीवन की मूलभूत आवश्यकता को प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है और जीवन में पाई -पाई का हिसाब है और इसी पाई -पाई के हिसाब में सभी संबंध तार-तार हो जाते हैं ।इस त्रासदी काल में सभी घर पर बंद थें। घर के माध्यम से यह विचार व्यक्त किए हैं की इंसान कहीं भी भटकता रहे लेकिन अंत में उसे सकूून घर पर ही प्राप्त होता है क्योंकि यह घर का कोना ही होता है जिसमें वह अपने मन के भावों को अपने अनुरूप ढाल सकता है। अपनी कविता “भारत का विकास और लोकतंत्र” में कवि ने भारत की महिमा का गुणगान करते हुए जहां यह व्यक्त किया कि भारत 33 करोड़ देवी -देवताओं का वरदान है जो आज 10 करोड़पतियों के नाम हो गया है शायद इसीलिए मेरा भारत महान है ।
प्रकृति के शाश्वत रूप का चित्रण करते हुए उसकी सुंदरता को अपने हृदय में सभ्यता , प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को व्यक्त करती कविता ….”प्रकृति शाश्वत है “और जीवन की कठिनाई को व्यक्त करती कविता जिंदगी कठिन हो गई है।जिंदगी में कभी -कभी मानवी मन अपने आसपास फैली चुप्पी ,खामोशी उसे बार-बार टीसती है और बार-बार वह बात करने के लिए लालायित कोटा है ।उस पीड़ा का घनीभूत चित्रण किया गया है और कई बार तो मन सोचता है कि कहीं दूर जाकर कुछ नई बस्ती बसाई जाए और इसी सोच को “एक नई बस्ती बसाई जाएं “कविता में प्रकट किया है जंगलों में नहीं है रोटी कवि ने सामाजिक विषमताओं का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है क्योंकि कामकाज के लिए लोगों को शहरों की तरफ भागना पड़ता है अपने पैतृक स्थानों से दूर और इसी को दर्शाती की “जंगलों में रोटी नहीं प्राप्त हो सकती” और शहरों में जंगलराज है वहां किसी को किसी की मेहनत का वह फल प्राप्त नहीं हो पाता ।जंगलों में रोटी नहीं है और शहरों में जंगलराज है बहुत ही सुंदर चित्रण किया है जिंदगी के बदलते रंग में पल -पल जिंदगी के जो रंग हैं और लोगों के साथ जो भाव है वह बदलते हैं इसी को चित्रण किया गया है और जब यह त्रासदी के कारणों पर नज़र जाती है तो लगता है कि ईश्वर मनुष्य से नाराज हो गया है और इसी पर प्रभु क्यों नाराज है कविता का सृजन हुआ है सब कुछ उड़ेल दूं तुम पर”….. कविता में कवि को उम्मीद की एक किरण कुछ देर के लिए पुलकित करती हुई नजर आती है उसे मनोभाव के स्वप्न में लगता है। कभी कुछ पल के लिए उस सपन सुंदरी के साथ जो उसके भीतर की खामोशी से बातें करती है उसको प्रेरणा देती है आगे बढ़ने का विश्वास देती है । उसकी आंतरिक खामोशी को मुखर करती हुई उससे बातें करती है। सन्नाटे की आवाजों में भीतर की आवाजों किशोर को बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी है मनुष्य के अंदर कितनी कोहराम मचा होता है लेकिन वह उसे व्यक्त नहीं कर पाता।
इसी अकेलेपन में कभी-कभी ईश्वर से एहसासों के साक्षरताकार में उम्र के अनेकों पड़ावों में लगता है कि
जीवन में बहुत कुछ पा लिया है और बहुत कुछ खो दिया है ।लेकिन उस पड़ाव लगता है कि जीवन में कोई भी चीज इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी जितना ईश्वर को पाने का एहसास उसे खोजने का एहसास। और जीवन का समय समाप्त होने को होता है।
“वसुदेव कुटुंबकम “पूरे विश्व को एक सूत्र में पिरो कर अपने भावों को व्यक्त किया है और पूरे विश्व में अमन प्यार और शांति के लिए दुआ की है ।अपने वजूद में वजूद ही क्या है समाज और राष्ट्र के साथ एक मानव एक संपूर्ण मानव की कल्पना की है। मनुष्य का विकास तभी हो सकता है जब वह समाज को विकसित करते हुए उसे विश्व सोपान पर ले जाए ।इसी का संदेश देता यह का काव्य संग्रह त्रासदी के काल के बाद भी प्रेरणा का पुंज और मनुष्य के हृदय में उड़ते हुए भावों को व्यक्त करने का माध्यम बना रहेगा।
समीक्षक — प्रीति शर्मा “असीम”