शेषनाग सिर है धरी, मां वसुंधा महान।
जन गण की है तारणी, करती जन कल्याण।
सतयुग त्रेता द्वापर, कलयुग तक की मार।
युगों युगों से ढो रही, है पापों का भार।
हीरे रत्न अमुल्य से, भरे पड़े भंडार।
दे कर अनमोल संपदा, सुखी करे संसार।
उगले कनक वसुंधरा, होता खुशी किसान।
अन्न भरे भंडार से, होते पुलकित त्रान।
तरु झूमते मस्त यहाँ, खिले भाँत के फूल।
वन उपवन हैं महकते, रस भरे कंदमूल।
न्नहें शावक उछलते, फिरते हिंसक जीव।
खेलें तेरी गोद में, लिये अपना नसीब।
खग करें बसेरा यहाँ, गाते तेरा गीत।
ठंडी समीर डोलती, छेड़ मधुर संगीत।
इंसान करता है मां, हर पल अत्याचार।
काटे तेरी संपदा, करता वन संहार।
मही, धरती, भूमि, धरा, अनेक तेरे नाम।
रत्नावती, रत्नगर्भा, हो मम कोटि प्रणाम।
— शिव सन्याल