शुद्धिकरण
मंदिर की ओर जाते हुए पुजारी भीड़ में धक्के के कारण सफाई कर्मचारी से जा टकराया. “सर्वनाश हो तेरा, अब फिर से स्नान करना पड़ेगा” कहते हुए इतनी जोर से ढकेला कि उसका सिर दीवार से जा टकराया. वह लहुलूहान हो गया और दर्द से कराह उठा. भक्त फूल-माला और प्रसाद लिए कतारबध्द पुजारीजी का इंतज़ार कर रहे थे. उसे उठाना तो दूर, उल्टा उसे भला-बुरा कहने लगे. वह किसी तरह उठा और मंदिर के बाहर जमा कूड़े को साफ़ करके चुपचाप वहाँ से चला गया.
शाम की संध्या-आरती के बाद मंदिर बंद करके पुजारीजी घर पहुंचे. पत्नी बच्चों को लेकर मायके गई हुई थी अत: भोग-प्रसाद द्वारा क्षुधा तृप्त किया. रात गहराने लगी, नशे में धुत उनकी अधमुखी आँखें प्रतीक्षारत थीं. काफी देर बाद पीछे के दरवाजे पर एक आहट सुनाई दी. उन्होंने लड़खड़ाते कदमों से दरवाज़ा खोला.
“जल्दी आ, बड़ी देर लगा दी. तू जानती है न कि अगर कोई देख लेगा तो क्या होगा ?” कहते हुए उन्होंने रधिया को खींचकर बाँहों में भर लिया. रधिया ने मुस्कराते हुए कहा – क्या करें पंडितजी ? सुबह-सुबह सूरज के बापू ने न जाने कहाँ से सिर फोड़ लिया. शाम को उसे बहुत दरद हो रहा था. लेप लगाया तब जाकर उसे नींद आई. उसके सो जाने के बाद आई हूँ इसलिए देर हो गई. यह सुनकर पुजारीजी ने कुछ नहीं कहा और बात टालते हुए कहा ,”अच्छा बात ही बनती रहेगी या मेरा भी ईलाज करेगी. पहले मेरा ईलाज कर फिर मैं तेरे पति की भी दवा करवा दूँगा.” एक अर्थपूर्ण मुस्कान उनके चेहरे पर आ गई.
“उठ-उठ भोर होने को आई. जल्दी जा, नहीं तो तुझे मेरे घर से निकलते कोई देख लेगा. ये ले सौ रुपये: अपने पति की मरहम-पट्टी करवा लेना.”
“बस सौ रुपये ? कुछ और मिल जाते तो मदद हो जाती.”
“अच्छा, रख तीस रुपये और. तू भी क्या याद रखेगी.”
रधिया रूपये लेकर तेज़ी से घर की ओर चल पड़ी. इधर पुजारीजी घर में रखे गंगाजल को चारो ओर छिड़ककर शुध्दिकरण में लग गए.