खदराला का भ्रमण
खदराला जाने का अवसर मुझे 1978 में मिला। शिमला से वाहन द्वारा टैक्सी या बस द्वारा ही वहां पहुंचा जाना संभव था। शिमला से बस द्वारा नारकंडा होते हुये सुंगरी- खदराला-रोहरू मार्ग पर जाना पड़ता है। नारकंडा तक तो सड़क पक्की थी और आगे कच्ची थी, परन्तु अब पक्की है। लगभग 110 किलो मीटर की यात्रा है परन्तु समय 7,8 घंटे लग गया था।
हिमाचल प्रदेश के शिमला ज़िला में एक बहुत पुराना खदराला नाम का छोटा सा गांव है।वैसे तो शिमला ज़िला में गांव फैले होते हैं।एक स्थान पर 4,5 घर आसपास होते हैं तथा थोड़ी दूर 4,5 घर और होंगे।यह स्थान समुद्रतल से लगभग 2700 मीटर की ऊंचाई पर है और यहां सदा ही ठंड रहती है। पुराने हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग पर होने के कारण उस समय यहां चहल-पहल होती थी।।यहां से ही खच्चरों पर सामान चीन को जाता और आता था। व्यापारी यहां रात को विश्राम कर लेते थे। यहां बन विभाग का पुराना विश्राम गृह, डाक खाना और बैंक हैं। इस विश्राम गृह में नैशनल जियोग्राफी के अंग्रेज़ों के समय के कुछ अंक थे।यहां भारतवर्ष के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु और उनकी बेटी इन्दिरा गाँधी आये थे और इसी स्थान से नेहरू जी ने स्थानीय लोगों को संबोधन किया था।
यह क्षेत्र पहले आलू उत्पादन का प्रमुख केंद्र था और सीट पोटैटो के लिये जाना जाता था।आलू के कंद ही आलू का बीज कहा जाता है। दक्षिण भारत में इसी को आलू की बुवाई के लिये प्रयोग किया जाता है। खाने के लिये बहुत सुन्दर और अच्छा है।सन1950 के आसपास यहां राज्य के कृषि विभाग ने सेब और अन्य समशीतोष्ण फलों का बागीचा लगाया जिसे देख कर स्थानीय लोगों ने सेब के बागीचे लगाने शुरू किये थे। कृषि विभाग का यह बागीचा अब उद्यान विभाग के अधीन है। यह बागीचा पुरानी हिंदुस्तान-तिब्बत मार्ग पर खदराला बन विभाग के विश्राम गृह से थोड़ा आगे है।
खदराला में यह सबसे विशाल और बड़ा अच्छा सेब का बागीचा लगा हुआ था और अब भी है। यहां सेब के अतिरिक्त और भी फलों के पेड़ थे। इन पेड़ों पर अप्रैल के अंत से मध्य मई में फूल आते हैं जो एक महीने बाद फल बन जाते हैं।फल के प्रकार और जाति के अनुसार फल पकने आरम्भ होते हैं और सितम्बर तक पेड़ पर रहते हैं।मई से सितम्बर तक पेड़ों पर सुन्दरता रहती है और पर्यटकों के लिए यही समय आनंद लेने का है। खुबानी, प्लम, चैरी और आड़ू के फल पहले तैयार होते हैं।सेब के फल जून के अंतिम से सितम्बर तक तैयार होते हैं।यहां के फल सुन्दर, बड़े और रसदार होते हैं तथा लम्बे समय तक भंडारित किये जा सकते हैं।चैरी के फलों के लिये बड़ा ही उपयुक्त स्थान है।गहरे लाल या जामुनी रंग के फल बड़े मीठे और रसीले होते थे।ब्लैक हार्ट नामक जाति प्रमुख थी।सन 1970 तक यहां की चैरी के फल राष्ट्रपति निवास तक जाते थे।
विभाग का बागीचा मुख्य सड़क से निचली तरफ लगा हुआ था।मैंने तो ऐसा बागीचा पहली बार देखा था।आधे से अधिक खुले समतल भाग पर लगा हुआ था और शेष भाग कंटूर पर था। सभी पेड़ पंक्तियाँ में लगे हुये हैं । शीत ऋतु में प्रायः 5-8 फुट बर्फ पड़ने के कारण भूमि में नमी बनी रहती थी। जल का स्रोत पास ही था।वर्षा का जल एकत्रित करने के लिये पक्का तालाब बनाया गया था और आवश्यकता होने पर जल का प्रयोग किया जाता था। वहां बिजली नहीं थी इसलिये सभी काम दिन में ही करने होते थे।सायंकाल में लैंप जला कर ही खाना बनाना होता था। विश्राम गृह, निवास गृह, कार्यालय, प्रयोगशाला आदि के भवन बहुत सुन्दर थे।दृश्य बहुत मनमोहक और आकर्षक है।सामने मुराल ढांडा आदि की बर्फ से ढकी चोटियों को देखना बहुत अच्छा लगता है। बागीचे की देखभाल करने वाले वहां अकेले ही होते हैं, वहां आसपास कोई नहीं होता। गांव भी दूर धा।उन दिनों वहां दो निरीक्षक और कुछ कर्मचारी थे मन में विचार आते कि कितना परिश्रम कर यहां पेड़ लगाये होंगे।गड्ढे तैयार करने, खाद और पेड़ लाने का काम करना कठिन था।कहां से श्रमिक लाये गये होंगे और कौन उनकी देखभाल करता था। आज तो सब काम सुगम है। मेरा वहां एक दिन का ही काम था तथा एक दिन जाने के लिए लगा और एक दिन वापस आने को लगे। दो रात रहने का समय मिला और ऊपर से नीचे तक का बागीचा देख कर आश्चर्य और प्रसन्नता हुई।
अब तो पर्यटन विभाग ने यहां होतटल खोला है।निजी होटल, दुकानें और ढाबे हैं।शीत ऋतु में विंटर सपोर्ट करवाये जाते हैं। खेल प्रेमी देश विदेश से आते हैं।उनके ठहरने आदि की व्यवस्था अच्छी है।
— डा वी के शर्मा शिमला