कविता
नेह की बाती जो तूने जलाई
आंधी एक ऐसी अचानक आई
झटके से बुझा गई जलती बाती
ऐसा क्यों हुआ मेरे समझ न आई
गुस्ताख़ी क्या हुई हमसे ऐसी
जो मुहब्बत खुदा को रास न आई
खफा़ थे मुझ से तो कह के जाते
बताना भी जरूरी तुम्हें समझ न आई।
तुम बिन न दिन न रात समझ आई
मुस्कुराहट भी अधरो की जिन गई
लाख जतन किए तुझे भुलाने की
फिर भी भुला नहीं इक पल पाई
साथ जीने-मरने की थी कसमें खाई
न तुम निभा पाये,न मैं निभा पाई।
कोई शक्ति आ तुझे छिन ले गई
मैं अशक्त होकर देखते रह गई
तन्हाई ही अब मेरी सहेली बन आई
मन की गांठें खोलूं तो आंखें भर आईं
मेरे लिए हर रात विरह की रात है
सुबह-सुबह तुम्हारी याद फिर आई।
— मंजु लता