लघुकथा

रोऊं या मुस्कुराऊं…

आज सुबह से ही सोशल मीडिया पर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के बधाई संदेश आ रहे थे। रीना ने जब दिन में मोबाइल उठाकर देखा तो ढेर सारे ऐसे सुखद संदेश उसे भी प्राप्त हुए थे। मुश्किल से तीन महीने ही हो पाए थे उसके विवाह को। सुखद भावी जीवन के अनेकों सपने सजाए उसने इस घर की देहरी पर कदम रखे थे। मगर यह क्या…..? कुछ ही दिनों बाद उसके सपनों को ग्रहण लगने लगा था। दहेज का दानव जाग उठा था।सास-ससुर से बात- बात पर प्रताड़ना मिलने लगी थी। परिवार के अन्य सदस्य भी उन्हीं के साथ हो लिए। शायद रीना का पति और देवर इस बात का विरोध भी करना चाहते थे परंतु उनमें भी साहस ना था क्योंकि परिवार में सिर्फ पिता की ही चलती थी।

आज सुबह-सुबह भी उसे उलाहना दी गई थी। यह सारी बातें उसके दिमाग में किसी फिल्म की रील की तरह चलती रहतीं और रुकने का नाम ही नहीं लेतीं। अंदर ही अंदर काफी घुट रही थी वह परंतु कुछ बोलने की सोचती तो संस्कार आड़े आ जाते।
सारे काम निपटा कर अपने कमरे में कुछ देर के लिए अकेली थी तो मोबाइल पर आए संदेश पढ़ने लगी। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर एक से एक बड़ी बातें समाचारों में थी और बढ़िया से बढ़िया संदेश। लग रहा था कि नारी जीवन का संपूर्ण उत्थान हो चुका है और अब कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं है।
फेसबुक पर रीना के ससुर ने भी समस्त महिलाओं को संबोधित करते हुए अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की बधाई देते हुए शब्द रचना की थी।  रीना समझ नहीं पा रही थी कि वो रोये या मुस्कुराए।

अमृता पान्डे

मैं हल्द्वानी, नैनीताल ,उत्तराखंड की निवासी हूं। 20 वर्षों तक शिक्षण कार्य करने के उपरांत अब लेखन कार्य कर रही हूं।