गीत
दिल पर रखकर हाथ कहो कवि
क्या तुम सच में सच लिखते हो,
भीतर से भी क्या वैसे हो,
जैसे बाहर से दिखते हो |
सच कहने का साहस शायद
अब तक नहीं जुटा पाए हो|
छद्म प्रशंसा अनुशंसा में
खुद उलझे हो, उलझाए हो।
शब्द बृह्म शाश्वत होता है
उसे म्यान में क्यों रखते हो।
सत्य तुम्हें दिखता तो होगा,
उसे सत्य तुम कहना सीखो।
हुयी रक्तरंजित धरती हो,
मत सपनों में रहना सीखो।
माना तुम सुखांत कविता का ही
सद्भाव सृजन करते हो।
तुम्हें न भय हो अपमानों का
दरबारी सम्मान भुला दो।
कहो लेखनी से कुछ ऐसा
सिंहासन की चूल हिला दो।
पैनी रक्खो धार कलम की
उसे मोथरी क्यों करते हो।
आज लिखोगे तुम जो सच वो,
स्वर्णाक्षर में अंकित होगा।
ये विभोम स्वर युगों युगों तक
अंतरिक्ष में गुंजित होगा।
हैं विरोध में अभी हवायें
नाहक क्यों चिंतित रहते हो।
— डॉ. रश्मि कुलश्रेष्ठ