कहानी

टीना आंटी का सपना

तीन महीने की प्रसूति की छुट्टी खत्म होने में केवल दस दिन शेष रह गये। प्राची को वापस अपने विभाग का चार्ज संभालना पड़ेगा। उसकी नौकरी साधारण नहीं है। वह प्रजनन संस्थान के कैंसर में विशेष योग्यता रखती है। इंग्लैंड के इस अस्पताल में उसे अपनी कर्मठता के कारण ऊँची पदवी पर निर्वाचित किया गया था। और दो वर्ष बाद वह कंसलटेंट बन जायेगी। नयी माँ बनने के कारण परिस्थितिवश यदि उसने इस्तीफ़ा दे दिया तो सदा के लिये उसके करिअर पर धब्बा लग जायेगा। इसके अलावा यदि यह नौकरी छोड़ दी तो दूसरी पता नहीं देश के किस कोने में मिले। अभी तो उसका पति विमल भी वहीँ काम करता है। हड्डियों व जोड़ों का विशेषज्ञ है। गृहस्थी बिखर जायेगी।
उसकी बच्ची दो मास की है। उसे कौन देखेगा? प्राची की माँ स्वयं दिल्ली में डॉक्टर हैं और विभागाध्यक्ष भी, ड्यूटी छोड़कर नहीं आ सकतीं। जिस सास ने पहले वर्ष से ही बच्चे के लिये उपालम्भ देने शुरू कर दिये थे वह न तो उसकी गर्भावस्था में आ सकीं, न जचकी में और न अब। स्त्री का शरीर तो सबके लिये एक जैसा होता है चाहे डॉक्टर हो या मालिन। पहला गर्भ प्राची के लिये भी आसान नहीं था। पहले तीन मास – कच्चे पक्के दिन- मतली, पित्त बुखार, न खाने से कमजोरी। सब सहकर भी पूरी ड्यूटी।

पति बेचारा अपनी ड्यूटी के घंटों से बंधा। घर आकर खाने दाने की चिंता। जब उल्टियाँ रुकीं तो रक्तचाप बढ़ने लगा। हाथों पैरों की सूजन। फिर भी अस्पताल में पूरी ड्यूटी देती रही। रोज़ के पांच छह ऑपरेशन तो उसे करने ही होते थे। बायें हाथ की सूजन के कारन हाथ की प्रमुख धमनी फँस गयी। ऑपरेशन करना पड़ा। एक हाथ से ही चलाती रही। राम-राम करके आशिमा का जन्म हुआ। फूल सी बच्ची पाकर वह सब भूल गयी। दोनों पति पत्नी जी जान से बेटी पर निछावर हो गये। ढाई महीने पलक झपकते गुज़र गये। पर अब? कोई बच्चा सम्भालने वाली न मिली तो क्या होगा? छोटा शहर है उसका। दो- चार चाइल्ड माइंडर्स जो हैं भी उन्होंने लाल झंडी टांग रखी है यानि जगह खाली नहीं है। दूर जगह से कोई आयेगी नहीं। अंत के तंत उसे बेबी क्रेश में रखना पड़ेगा। यह सोंचकर प्राची के आंसू निकल आये। क्रेश उसके अस्पताल से उलटी दिशा में है।
पहले बच्ची को छोड़े फिर अपने काम पर जाये। सुबह साढ़े आठ बजे उसे पहुंचना भी होता है। कैसे निभेगी यह जटिल स्थिति? क्रेश में दो महीने से लगाकर साढ़े तीन वर्ष तक के बच्चे आते हैं। परिचारिकायें भागते-दौड़ते बच्चों के साथ अधिक व्यस्त हो जाती हैं। बेचारे नन्हे-मुन्ने अपनी कॉट में पड़े भ्याँ-भ्याँ रोते रहते हैं। उन नाक बहाते, खींचा तानी करते बालकों के साथ यह ओस की बूँद जैसी बच्ची!! प्राची का बाँध टूट गया। जी भर कर रो ली, पर आंसू पोंछने के लिये यहाँ कौन बैठा था पास?
थोड़ा स्वस्थ हुई तो स्वयं को समझाया कि ऐसे ही रोते रहने से तो काम नहीं बनेगा। उस दिन शुक्रवार था। वीकेंड में विमल के दोस्त बच्चे को देखने आने वाले थे। घर की रसद भी लानी थी। भारतीय रसद और मिठाई के लिये उसे पंद्रह मील दूर साउथैम्पटन जाना पड़ता था। बेबी आशिमा को पहली बार उसने कैरिकॉट में लिटाया। कार की पिछली सीट पर उसे पेटी से सुरक्षित किया। पहली बार वह अकेली उसे लेकर बाहर निकली। रोज़ हजारों के दिल दहला देने वाले दुखों की कहानियाँ धीरज और संवेदना से सुननेवाली डॉक्टर आज अपनी व्यथा से नर्वस हो उठी थी। आशिमा जरा भी कूँ-कूँ करती तो वह गाड़ी रोककर फ़ौरन चेक करती। मिठाई की दूकान के सामने ही उसे पार्किंग मिल गयी। पहले उसने पिछली सीट पर बैठकर आशिमा को दूध पिलाया और उसकी नैपी बदली। उसे अच्छी तरह शॉल में लपेटकर गोदी में लिया और एक हाथ से किसी तरह गाडी बंद करके वह दूकान में घुसी। जैसे-तैसे पर्स से अपनी लिस्ट निकालकर दुकानवाली को पकड़ाई जो पिछले आधे घंटे से उसको कांच में से ताड़ रही थी। प्राची की सूजी आँखे उसके रोने की गवाही दे रही थीं।
अतः सामान तौलते हुये उसने स्नेह भरे स्वर में पूछा ”आपका पहला बच्चा है?”
”हाँ आंटी, घर में कोई नहीं था इसलिए ठंड में बाहर लाना पड़ा। ”कोई कामवाली नहीं रखी?”
”आंटी ढूंढ रही हूँ। कोई मिली नहीं। काम पर जाती हूँ इसलिये जिस तिस का विश्वास भी तो नहीं किया जा सकता। फिर बच्ची को कैसे सौंप दूँ? ऐसी कोई हो जो पूरे समय घर में रहे। क्योंकि हम डॉक्टरों की ड्यूटी बदलती रहती है। अलग कमरा है मेरे पास।”
दुकानवाली की आँखों में चमक आ गयी। उसने अपने घर का फोन नंबर दिया। बोली ”मुझे फ़ोन कर लेना। शायद मैं कुछ कर सकूँ।”
उसी शाम को वह प्राची के घर अपनी कार से आ पहुंची। साथ मे उसकी बहन भी थी।
दुकानवाली का नाम रानी था और उसकी बहन टीना रानी ने बताया कि वह एक पब में किचन में काम करती है। टीना, उसकी बहन पंजाब से उसके पास विजिट करने आई है। अगर प्राची उसे रख ले तो अगले छह महीने तो कट ही जायेंगे। पता ठिकाना कार का नंबर आदि सब लिख लेने के बाद प्राची ने हामी भर ली। टीना आंटी वहीँ रहने आ गईं। ऐसे किसी को रखना गैरकानूनी है मगर प्राची के पास कोई विकल्प नहीं था। टीना आंटी वरदान साबित हुईं। घर और बच्चा दोनों संभाल लिया। प्राची को वह डाक्टर मिस बुलाती थीं। दिन भर बाद जब प्राची थकी हारी आती तो वह उसे हुकुम देतीं ”चल लम्बी लेट जा। तेरी टाँगे दबा दूँ।” प्राची को जिस ममता भरी माँ की जरूरत थी वह मिल गयी थी।
गरीब थीं, अंग्रेजी नहीं जानती थीं मगर दिल की साफ़ और प्रेम से लबालब। आशिमा को वह अपने भारतीय तरीके से पाल-पोस रही थीं। रोज ताज़ा सौंफ का पानी उबालतीं। बच्ची और माँ दोनों को नियम से पिलातीं। प्राची निश्चिन्त हो गयी। घर साफ़ सुथरा मिलता कपडे इस्त्री किये हुए यथास्थान। खाना वह बनाकर रखतीं। प्राची के बालों में तेल लगा देतीं। कोई मरम्मत का कपड़ा होता वह झट सुई उठा लेतीं।
एक दिन प्राची ने पूछा कि वह खुद तो बहुत सी चिट्ठियां लिखती थीं मगर कभी कोई पत्र गाँव से क्यूँ नहीं आता उनके लिये। वह मंद-मंद मुस्कुरा कर बोलीं,”खबर मिल जाती है। मेरे आदमी को लिखना-पढ़ना नईं आता। मैं तो चर्च वाले भाई को खत डाल देती हूँ। वही आगे खबर भिजा देता है। गाँव में इतना ही भौत है।”
”आंटी आप बड़ी उदास रहती हो।”
”बच्चे याद आते हैं । मेरी भी एक बेटी है। वो भी बच्चा जनमने वाली है। हुई तो तीन थीं मगर दो मर गईं। जब वो बीमार पड़ीं तो मेरी सास ने डॉक्टर को नहीं बुलाने दिया। कहा बुखार खांसी आप ही ठीक हो जावेगी। उनका बुखार बिगड़ गया निमोनिया हो गया। चल बसीं।” आंटी अपनी आँखें पोंछ रही थीं। “कोई माँ अपने पेट की जाई संतान का दुःख कभी भूल पाती है क्या?”
”क्या उम्र थी?”
”पहली चार बरस की थी और दूजी दो साल की। फिर तीन बेटों के बाद लता जनमी। तीन भाईयों की अकेली बहन। बड़ी तक़दीर वाली। मेरे मरद की लाडो। दादी ने भी कभी उसे ऊंचा बोल नहीं बोला। सोनी सुलक्खणी। दो बरस पैले उसका ब्याह किया। सोलवां साल लगा ही था। लाख रुपैय्या कर्ज़ा लेकर बेटी ब्याही। सब खुश थे मगर महीने बाद ससुराल वाले उसको हमारे घर छोड़ गये। उसका ससुर चार गुंडे संग ले आया। कहता था लता के ग्रह खराब हैं। क्योंकि उसकी भैंस को कट्टा पैदा हुआ। उसे चाहिये थी कट्टी जो दूध देती। पूछो यह भी कोई वजह हुई। मगर लुच्चपेशा करना था उसने।”
आंटी ने बताया कि, “उनका आदमी लट्ठ-बल्लम लेकर चला झगड़ा करने। मगर उन्होंने समझाया बुझाया कि आज हारकर चले जायेंगे मगर कल फिर बदला लेंगे लता से। कौन रखेगा बेटी को। अगर कोई गंदा इल्जाम लगा दिया तो गाँव भर के लोगों में मुंह दिखाना मुश्किल हो जायेगा। कोई बेटों को भी रिश्ते नहीं देगा। इसलिये गाँव के पंचों ने बीच में पड़कर फैसला कराया। उसकी नीयत खराब थी। सरपंच ने उसे दरी वाली खाट पर बैठाया। चांदी की तश्तरी में मेवा और दारू पेश किये। पूछा उसकी मंशा क्या थी। दारू डकार कर वह ज़रा पिघला तो बोला कि तीन भाई और बाप कमाने वाले हैं। वो बूढ़ा और उसका बेटा अकेला। इस मुस्टन्डी को कौन खिलायेगा। सरपंच ने ज़रा कड़ाई से फैसला दिया कि हमारे गाँव की कोई लड़की बाप के घर आकर नहीं बैठी इसलिये उसे बहू को अपने घर ही रखना होगा चाहे थोड़ा बहुता खर्चा पानी हमें देना पड़े। सो लता का बापू हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। समधी ने साल का एक मन अरहर, एक मन चना, एक मन उरद, एक मन मूंग, पांच मन चावल और दस मन गेहूं माँगा। दिवाली पर पांच हज़ार नकद। समझो सारे घर का साल भर का राशन सब दिया जी। लुच्चा सबसे उच्चा। पर मेरी लता सुखी नईं। सारा दिन खेतों में काम। गाय भैंस का चारा पानी। जानवर को भी टाइम से खाना दाना चाहिए मगर मेरी लता को उसकी सास बस रात को एक रोटी और दाल खाने को देती है। न दूध न फल। रब्ब उसे पुत्तर दे वरना समधी फिर छाती पर आ चढ़ेगा।” कहते-कहते आंटी फिर से अपनी आँखें पोंछने लगीं।
प्राची की रूह काँप गयी। कितनी भूख लगती है गर्भिणी को। कहाँ है धरम और मित्रता? कैसी हैं यह स्त्रियां जिन्हें पराये पेट का दर्द नहीं? क्या क्रूरता वंशानुगत होती है? क्या पूरी पूरी बिरादरी संवेदना हीन हो जाती है? क्यों यह सास सिर्फ एक माँ नहीं बन सकती? दया प्रेम क्या कमजोरी की निशानी मान लिया गया है? उसकी अपनी सास क्यों नहीं आई उसकी मदद करने? कितनी बार शुरू शुरू में वह भूखी ही पडी रही थी क्योंकि हाथ के दर्द से और कमजोरी से उससे उठा ही नहीं गया था। तड़प कर वह टीना आंटी से बोली,”आंटी आप कुछ करिये न। कम से कम खुराक तो पूरी मिले वरना बच्चा पनपेगा कैसे। कमजोर माँ अगर जचकी में दम नहीं लगा पाई तो मरने मारने की नौबत आ जायेगी। कितनी नई मायें मर जाती हैं हमारे देश में।”
”वही तो मैं चाहती हूँ। सब उप्परवाला रच्छा करेगा। तभी तो चिट्ठियां डालती हूँ।”
एक दिन कमरा संवारते समय प्राची को आंटी की धर्म पुस्तक दिखी। उत्सुकता वश उसने खोली तो देखा वह ‘सुखमनी साहब’ का गुटका था। प्राची को बड़ा आश्चर्य
हुआ। उसने सोंचा था कि लाल कपडे में लिपटी बाइबिल होगी। प्राची ने पूछा कि आप सिख धर्म को भी मानती हो तो आपके लोग कुछ कहते नहीं। आंटी एकदम शर्मिन्दा हो गईं। बताने लगीं कि हूँ तो मैं सिख मगर इधर आने के लिये रानी के आदमी ने मुझे स्पोंसर किया। अब वह तो ईसाई है इसलिए उसकी रिश्तेदार को भी ईसाई होना जरूरी है न। इसलिए उसने मुझे बप्टिज़्मा करने के लिये कहा। मैं अपने गाँव के चर्च में चोरी छुप गई और ईसाई बन गई। उसने मेरा नाम तेजिंदर से टीना कर दिया।
”रानी आंटी आपकी सगी बहन हैं?”
”हाँ एकदम सगी। साल भर बड़ी है।”
”वह कैसे यहाँ आ गईं? फिर अँगरेज़ से शादी?”
”बस जी धियों का क्या। पैदा कहाँ होती हैं और जा पड़ती हैं कहाँ ! रानी की कहानी तो लता से भी खराब है।”
आंटी ने बताया की उनका गाँव हरयाणा और पंजाब के बीच पड़ता है। उनके बापू के घर अच्छी खेती बारी है। मगर फसल पकने से पहले कई हफ्ते किसान खाली बैठा रहता है। सिर्फ उसे रखवाली करनी होती है। सो खाट पर पड़े पड़े चरस गांजा पीते हैं।
गाँव में सब सोंचते हैं कि इंग्लैंड में बहुत पैसा है इसलिये उधर ही जाना चाहिये।
लड़कियों की गुत्तें मरोड़कर उन्हें गन्दी गालियां देकर, दबा घोटकर, हर तरह से घर गिरस्ती के काम सिखाये जाते हैं मगर लड़के सड़कों पर छुट्टे मजा करते घूमते
हैं। सिगरेटें पीना, लड़कियों को छेड़ना, जीने पहनकर कमर आँखें मटकाते हैं। लंदन अमेरिका जाकर नालियां भी साफ़ कर लेंगे मगर घर में खाट भी नहीं बिछायेंगे। फसल कटाई के वक्त सब मूंछें मरोड़ेंगे, साफे कसेंगे और काम करने को यू पी, बिहार के मजदूर रखेंगे। अपने साहब ज़ादे चौकड़ियाँ जमायेंगे, सिनेमा देखेंगे। अब आजकल मोबाइल ने और जड़ें पुट्टी हैं इनकी। सब अमरीकी होना मांगते हैं। फसल बिकती है तो एक साथ ढेर सारा पैसा आ जाता है मगर आधा कर्जों में चला जाता है। किसान
गरीब का गरीब। न हिसाब जानते हैं न ढंग से खर्चना। एक बार गाँव में एक परिवार का रिश्तेदार इंग्लैंड से आया। उसने खूब अपने पैसे की धाक जमाई। उसकोअपने लड़के के लिये एक लड़की की तलाश थी थी जो घर गृहस्थी में दक्ष हो। अपने बेटे की बहुत तारीफें की और यह भी जता दिया कि उन्हें दान दहेज़ नहीं लेना। आंटी के पिता झांसे में आ गये और बड़ी लड़की राजिंदर का रिश्ता कर दिया। अगले हफ्ते वह लड़का आ गया और झट शादी हो गयी। राजिंदर विदा हो गयी। किसी ने यह नहीं सोचा कि वह नरक में जा रही है।
यहाँ आकर पता चला कि उस लड़के ने गोरी रखी हुई थी। वह उसके घर ही पड़ा रहता था। राजिंदर को सास की चाकरी में लगा दिया। सारे घर का काम वही करती थी। ससुर सीधा सा था। कुछ ख़ास नहीं कमाता था। सास सिगरेट की दूकान चलाती थी। सास को पीने की लत थी और पीकर चंडी बन जाती थी। अपने सिद्धड़ पति और बदमाश पुत्र का सारा गुस्सा वह राजिंदर पर निकालने लगी। उसे दोष लगाती कि तू बाँझ है। राजिंदर क्या करती चुपचाप मार खा लेती थी मगर सास का जुल्म बढ़ता गया। एक दिन किसी ने सुन लिया कि कोई चिल्ला रहा है। उसने झाँक कर देख लिया। राजिंदर जमीन पर पडी थी और सास उसकी छाती पर बैठी थी। राजिंदर के हाथ उसने दबा रखे थे और बेलन से उसके मुंह पर चोट करना चाहती थी। राजिंदर सर को इधर उधर झटक कर अपने को बचा रही थी। वह आदमी चिल्लाया और उसने राजिंदर को बचा लिया। पुलिस थाना हुआ। राजिंदर को सरकारी मदद मिल गयी। और उससे पूछा गया कि वह वापिस भारत जायेगी या यहीं रहना चाहती थी। भारत में सब तोहमतें लगाते, उसे ही बदनाम करते इसलिये वह बिरादरी के लिहाज की मारी इधर ही रहने लगी। पुलिस ने उसे उन ससुराल वालों से अलग कर दिया और उन लुच्चे लोगों से दूर साउथैम्पटन भेज दिया। वह जो भी काम मिलता कर लेती। एक बार एक रेस्टोरेंट में उसे बर्तन धोने और सफाई का काम मिल गया। वहीँ जो खाना बनाता था उसे रानी
बुलाने लगा क्योंकि यह आसान नाम था। धीरे धीरे दोनों एक दूसरे को चाहने लगे और शादी कर ली। उसका पति एरिक बहुत अच्छे स्वभाव का है। उसकी पहली बीबी छोड़ गयी थी। रानी की सहनशीलता मेहनत और सच्चाई उसे भा गयी। शादी के बाद वह उसे लेकर भारत गया और सबसे मिल आया। पूरे चार साल बाद रानी की असलियत माँ बाप को पता चली।
”अभी क्या रानी आंटी के बच्चे हैं?”
”हैं न। बड़ा बेटा है। प्लंबिंग का काम सीख रहा है। लड़की ड्रेस बनाना सीखती है। पुत्तर अलग फ्लैट लेकर दूसरे शहर में रहता है। बेटी संग ही रहती है। एरिक ने रानी को कार चलाना भी सिखा दिया है। अपने आप बैंक-बाजार कर आती है। गाँव में कोई जनानी घर का सौदा नहीं लेने जाती। मरद जाते हैं और पी खा के तमाशे देख के आ जाते हैं।”
”आंटी आप इस पैसे से कर्ज़ा उतारेंगी?”
”पैले ऐसा ही सोंचा था। पर एरिक की सलाह है कि सारा बैंक में जमा कर दूँ।”
“आपके गाँव में बैंक है?”
“हाँ है क्यों नहीं? मगर कोई-कोई ही जाता है वहाँ। जिसको पढ़ना लिखना आता है। जनानियों को तो वैसे भी हिसाब-किताब कहाँ आता है? मगर रानी को देखकर मैंने भी तय कर लिया है कि गाँव जाकर बैंक में अपना अलग खाता खोल लूंगी। रानी ने बताया है कि यहां सब औरतें अपना पैसा अपने बैंक में रखती हैं। उसपर रखने के पैसे ऊपर से मिलते हैं। लाख रुपय्ये पीछे छै सात हजार साल का। समझो मेरी लता के खाने का खर्चा निकल आयेगा। मर्द कौन सा हमें देते हैं अपनी कमाई?”
”कैसे? आप जानती हो कैसे करना होगा हिसाब।”
”नहीं मगर चर्च वाले पादरी भाई की मदद लेनी पड़ेगी। जब एरिक हमारे गाँव में आया था तो बहुत शोर मचा। हमारे घर बड़ी बूढ़ियों ने बहुत फिसाद किया कि मलिच्छ को घर में नहीं घुसने देना, वह गाय का मांस खाता है। हालांकि रानी ने उससे शादी इसी शर्त पर की थी कि वह बड़ा मांस नहीं खायेगा। और एरिक ने हमेशा अपना वादा निभाया है। मगर बुढ़ियों से कौन उलझता। इसलिए पादरी भाई ने उसे अपने घर ठहराया क्योंकि वहां अंग्रेजी कमोड वाला गुसलखाना भी था। उसने बहुत खातिरदारी की। वह मद्रासी है। पहले उसका नाम जगन्नाथ होता था मगर वह किरिस्तान बन गया। चर्च वालों ने उसे जैक नैथन बना दिया। उसका बाप झाड़ू लगाता था। मगर जैक नैथन बहुत साफ़ सुथरा रहता है। पढ़ लिखकर उसने पादरी ट्रेनिंग ली। गाँव में सबसे साफ़ उसी का घर है। हमारा ग्रंथी गाय भैंसों के तबेले में रहता है। उसके घर जाओ तो पैले गोबर कीचड़ से पूरा आँगन पार करना पड़ता है। सीधे मूँ बात भी नहीं करेगा। बच्चों को गालियां देकर बुलाता है। जैक हमेशा हैलो बोलेगा बच्चों से। एरिक हमारे घर
आकर भी बहुत खुश रहा। मेरे बाप ने दावत रखी। बताशे बांटे। ढोलकी बजी और भांगड़ा हुआ। एरिक और रानी भी नाचे। तभी से पादरी हमारे परिवार को जानता-
भालता है। मेरी चिट्ठियां भी वह पहुंचा देता है लता को चोरी छुपे।”
”अगर वह चिट्ठियां पहुंचा देता है तो आप उससे कहकर अपनी बेटी को खाना भी क्यों नहीं भिजवा देतीं?”
”मेरी बेटी का घर अलग गाँव में पड़ता है। हमारे यहां अपने ही गाँव में शादियां नहीं करते। कभी कभी तो बेटियां मर जाती हैं तो ससुरालवाले बस खबर भिजवा देते हैं।”
यह सोंच कर आंटी फिर रोने लगीं।
”रोइये मत, कुछ करिये।” प्राची की आँखें खुद ही नम हो आईं थीं।
अगले इतवार को जब वह रानी से मिलकर आईं तो खुश थीं। एरिक ने गाव के पादरी से फोन पर बात की और लता को खाना भिजवाने का इंतजाम करवा दिया। लता के गाँव की एक औरत रोज़ दुपहर को जब लता खेत पर होती है, उसे घी वाली रोटियां और दाल-सब्जी खिलायेगी। साथ ही लस्सी और फल भी देगी। वह चर्च की तरफ से दाई का काम सीखी है अतः वही उसकी सेहत की देखभाल भी करेगी। पादरी भाई को टीना आंटी का आदमी इस काम के लिए ६०० रुपय्ये महीना देगा।
”अगर लता की सास को पता चल गया तो?”
”डरना नहीं इनसे। एरिक कहता है कि डरे को सब डराते हैं।”
”लता के ससुरालवाले उस औरत को भगा देंगे।”
”चर्च वालों से कोई पंगा नईं लेता क्योंकि वह मुफ्त इलाज करते हैं। दवाईयां बांटते हैं। बच्चों को टीका लगाते हैं । बरसातों में आँखें दुखने आ जाती हैं तो दवाई की बूँदें डालते हैं। कान बहते हैं तो ड्रॉपर से कानों में दवाई डालते हैं। एक स्कूल भी खोला है मगर हमारे लोग वहां बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते। पान-गुटखा खाने को पैसे हैं मगर फीस देते नानी याद आती है। लड़के सारा दिन पतंगें उड़ाएंगे, मार पीट करेंगे, गालियां देंगे मगर स्कूल नहीं जायेंगे। न ही कोई काम सीखेंगे।”
प्राची सोचने लगी कि क्यों हमारे मंदिर भी बच्चों को पढ़ाने का इंतजाम नहीं करते? सुबह की पूजा आरती के बाद ठाकुर शयन करते हैं। मंदिर बंद हो जाते हैं।
फिर शाम को चार बजे खुलते हैं। इतने बड़े बड़े आँगन खाली पड़े रहते हैं। क्यों नहीं उसमे बच्चे पढ़ लिख सकते? इतना पैसा कहाँ जाता है? हमारे ठाकुर सोने- चांदी से जड़े जाते हैं मगर कोई मंदिर दवाइयाँ क्यों नहीं बाँटता गरीबों को? चर्च वाले फिर अगर जगन्नाथन को जैक नैथन बना देते हैं और पढ़ा लिखा कर पादरी बना देते हैं तो हमें बुरा क्यों लगता है?
आंटी बताने लगीं कि हमारे लोग बस फायदा उठाते हैं। आपस में भी किसी की मदद नहीं करते। सामने देखेंगे कि कोई अपनी स्त्री या बहू बेटी को मार रहा है पर
कोई उठकर बीच बचाव नहीं करेगा। कोई बड़ी-बूढी मार खाती बच्चियों को उठकर बचा नहीं लेती। न कोई पासी-पड़ोसी कहता है कि बहू-बेटियों पर जुल्म मत करो कि बच्चों को मारना पाप है। औरतें तो और भी खराब। दुनिया भर की बातें रस ले लेकर कहे सुनेंगी मगर एक दुसरे की मदद नहीं करतीं। बाप दादा चांटे मार देंगे बच्चों को मगर पास बैठाकर अच्छी बातें सिखाने का वक्त नहीं। कोई हुनर नहीं, न बात करने की तमीज। मेरा भाई इधर आया था। पिछले साल एरिक ने उसे भी बुलाया था। जब पूछा कि क्या काम जानता है तो उसका बोल ही नहीं फूटा। छै महीने भांडे मल के वापिस चला गया। इधर तो सब लड़के लकड़ी का काम, बिजली का काम, टूट-फूट जोड़ने का काम स्कूल में ही सीखते हैं। रानी का बेटा सब जानता है।”
”आंटी आप फिर भी कहती हैं कि लता को बेटा ही दे भगवान?”
”क्या करूँ। जो अगर पहला बेटा न हुआ तो सास ने रोटी भी नहीं पूछनी। पहला बेटा हो जाने से माँ बाप को भी देना लेना एक ही बार करना पड़ता है। वरना पहले-पहले बच्चे का दो। फिर जब दोबारा लड़का होये तो दो। हमारी रिवाजें ही बहुत खराब हैं।”
आंटी कुछ देर चुप हो रहीं। फिर हिसाब लगा कर बोलीं की बच्चा तो शायद उनके जाने के बाद ही होगा। इसलिये वह पादरी भाई से कहकर एक मोटर का इंतजाम करेंगी और लता को अपने घर ले आयेंगी। इस पर तो सास कुछ नहीं कहेगी। क्योंकि उसे देख भाल करने का जिम्मा नहीं लेना पडेगा।
”बहू की सेवा करते नानी मरती है। जब बच्चा आ जाये तो बनारसी सूट मांगती हैं। न देओ तो लड़की की शामत। यह भी कोई धर्म हुआ? रानी के लड़का हुआ या लड़की दोनों बारी एरिक के सारे रिश्तेदारों ने उसको प्रेजेंट दिए। बच्चों को दिये सो तो गिनो ही मत। एरिक की बुड्ढी चाची आये दिन केक बनाकर रानी को खिलाने आती थी। ये सिर्फ हमारे हिन्दुस्तान में उलटा मांगते हैं। अरे भाई ख़ुशी तुम्हारे घर आई है। लड़की के माँ बाप का कंघा क्यों करते हो? कोई टैक्स देना है राजा का? फिट्टे मूँ।” कहकर आंटी चुप हो रहीं पर फिर कुछ मन में विचार जगा। बड़े इत्मीनान से फैसला किया।
“जो मेरी लता ने बेटी जन्मी तो मैं उसे अपने पास ले आऊँगी और उसे चर्च के स्कूल में पढ़ने भेजूंगी।”
टीना आंटी की आँखों में भविष्य का सुनहरा सपना तैर रहा था।

— कादम्बरी मेहरा

*कादम्बरी मेहरा

नाम :-- कादम्बरी मेहरा जन्मस्थान :-- दिल्ली शिक्षा :-- एम् . ए . अंग्रेजी साहित्य १९६५ , पी जी सी ई लन्दन , स्नातक गणित लन्दन भाषाज्ञान :-- हिंदी , अंग्रेजी एवं पंजाबी बोली कार्यक्षेत्र ;-- अध्यापन मुख्य धारा , सेकेंडरी एवं प्रारम्भिक , ३० वर्ष , लन्दन कृतियाँ :-- कुछ जग की ( कहानी संग्रह ) २००२ स्टार प्रकाशन .हिंद पॉकेट बुक्स , दरियागंज , नई दिल्ली पथ के फूल ( कहानी संग्रह ) २००९ सामायिक प्रकाशन , जठ्वाडा , दरियागंज , नई दिल्ली ( सम्प्रति म ० सायाजी विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी एम् . ए . के पाठ्यक्रम में निर्धारित ) रंगों के उस पार ( कहानी संग्रह ) २०१० मनसा प्रकाशन , गोमती नगर , लखनऊ सम्मान :-- एक्सेल्नेट , कानपूर द्वारा सम्मानित २००५ भारतेंदु हरिश्चंद्र सम्मान हिंदी संस्थान लखनऊ २००९ पद्मानंद साहित्य सम्मान ,२०१० , कथा यूं के , लन्दन अखिल भारत वैचारिक क्रान्ति मंच सम्मान २०११ लखनऊ संपर्क :-- ३५ द. एवेन्यू , चीम , सरे , यूं . के . एस एम् २ ७ क्यू ए मैं बचपन से ही लेखन में अच्छी थी। एक कहानी '' आज ''नामक अखबार बनारस से छपी थी। परन्तु उसे कोई सराहना घरवालों से नहीं मिली। पढ़ाई पर जोर देने के लिए कहा गया। अध्यापिकाओं के कहने पर स्कूल की वार्षिक पत्रिकाओं से आगे नहीं बढ़ पाई। आगे का जीवन शुद्ध भारतीय गृहणी का चरित्र निभाते बीता। लंदन आने पर अध्यापन की नौकरी की। अवकाश ग्रहण करने के बाद कलम से दोस्ती कर ली। जीवन की सभी बटोर समेट ,खट्टे मीठे अनुभव ,अध्ययन ,रुचियाँ आदि कलम के कन्धों पर डालकर मैंने अपनी दिशा पकड़ ली। संसार में रहते हुए भी मैं एक यायावर से अधिक कुछ नहीं। लेखन मेरा समय बिताने का आधार है। कोई भी प्रबुद्ध श्रोता मिल जाए तो मुझे लेखन के माध्यम से अपनी बात सुनाना अच्छा लगता है। मेरी चार किताबें छपने का इन्तजार कर रही हैं। ई मेल [email protected]