रंगीन बेरोजगारी
बेरोजगारी घटी नहीं,
कोई युवती पटी नहीं !
सोच लिया हूँ
मानवता की खातिर,
‘अप्रैल फुल’ तक
घर पर
निठल्ला पड़ा रहूँ !
संकट की घड़ी में
‘गायब’ है वह !
न अखबारों में,
न संसद में,
न जमीन पर !
होली ‘गम’ का त्योहार है !
हम गम के रंगों में
‘रंगहीन’ हो
गिरगिटी नेताओं के
रंगे सियाराना चेहरे का
पर्दाफाश करें !
बेटी बचाओ,
किन्तु ‘होलिका’ का
दहन क्यों?
हर नस्ल, जाति,
सम्प्रदाय की बेटी
यानी सबकी बेटी!
पर बहन-बेटी का
दहन क्यों?
किसी बेटी का जलना
‘आहतवाली’ बात
नहीं है क्या ?
“कवयित्री शैफाली के बहाने-
औरत को विराम कहाँ ?
उनकी हर अंग अल्पविराम है !
मर्द कुछ देर यहाँ ठहर
विस्मयादि चिह्न छोड़ जाते !
और कुछ लगा जाते
प्रश्नवाचक दाग ?”
इसलिए गलत परंपरा का
निर्वहन नहीं हो !
होलिका दहन के नाम पर
बाहर रखी
मेरी चौकी जला दी गयी !
फिर होली क्यों ?
रंगपर्व यानी फगुआ की
शुभमंगलकामनाएँ !