रंगों की फुहार
बाबू की खुशी का ठिकाना नहीं था। उसके बाबा का गांव से फोन आया था। बाबा चाहते थे कि बाबू गांव में पूरे परिवार के साथ होली मनाए। होली बाबू का प्रिय त्यौहार था। बाबू को शहर गए हुए एक वर्ष हो चुका था। गांव की पाठशाला से उसने आठवीं की परीक्षा पास की थी। पूरे जिले में वह प्रथम स्थान पर था। इसी बात से खुश होकर उसके चाचा उसे अपने साथ शहर ले गए थे। गांव में आठवीं तक ही स्कूल था। आगे की पढ़ाई के लिए दूर के गांव में ही एक स्कूल था।
शहर में चाचा ने उसका दाखिला एक स्कूल में करवा दिया। चाचा दिन भर अपने काम पर रहते। चाची ही घर पर होती। उनका व्यवहार बाबू के साथ अच्छा नहीं था। अपने बेटे, डब्बू से वो खूब लाड लड़ाती लेकिन बाबू को एक नौकर से अधिक नहीं समझती। घर के काम उससे करवातीं। खाना भी सबके खाने के बाद ही देती। डब्बू भी गंवार कहकर उसे चिढ़ाता रहता था। चाचा का फ्लैट दो कमरों वाला था। एक कमरे में डब्बू पढ़ाई करता और दूसरे कमरे में चाचा चाची सोते। बाबू के न पढ़ने की जगह निश्चित थी न ही सोने की। दिन में बालकोनी में बैठकर पढ़ाई करता और रात में सबके सोने के बाद लॉबी में सोफे पर लेटकर सो जाता। अक्सर रात में बाबू अपने मां बाबा को याद करके रोता रहता परन्तु किसी से कुछ नहीं कहता। बाबा का बुलावा आया तो उसकी जान में जान आई। डब्बू गांव में नहीं जाना चाहता था किन्तु चाचा ने उसे जाने के मना लिया। चाची को भी मजबूर होकर साथ जाना ही पड़ा।
होली के दिन सुबह होली पूजन हुआ और शाम को होलिका दहन। डब्बू गांव में किसी से अधिक परिचित नहीं था इसलिए बाबू के साथ साथ ही घूम रहा था। बाबू के साथ वह पहले कभी इतने समय तक नहीं रहा था। अपने घर में भी नहीं। बाबू ने अपने सभी दोस्तों से उसका परिचय कराया। सभी उसके साथ खेल रहे थे। सबने मिलकर अगले दिन का कार्यक्रम निर्धारित किया। फाग पर गुलाल और रंग वाली होली खेलने का। गुपचुप योजना बनाई गई। डब्बू को सब समझ नहीं आया लेकिन वह खुश था।
सुबह डब्बू सोकर उठा तो बाबू घर में नहीं था। डब्बू उसे ढूंढते हुए घर से बाहर गया तो पहचान नहीं पाया। सबके चेहरे रंग से पुते हुए थे। बाबू को पहचानना मुश्किल था। डब्बू जब तक पहचान पाता तब तक उसके उपर रंग की बारिश होने लगी। अब वह भी उनकी तरह रंग से नहा गया। पहचानना मुश्किल था कि कौन बाबू है और कौन डब्बू। दोपहर तक जमकर सबने होली खेली। खूब धमाल मचाया। डब्बू ने पहली बार ऐसी होली देखी थी। वह जिस शहर में रहता था वहां होली कोई खेलता ही नहीं था। बारह बजे के बाद जब सबका रंग ख़तम हो गया तो बच्चे अपने अपने घर वापिस चले गए। डब्बू और बाबू भी घर लौट आए। खूब मल मल कर नहाए। नहाकर, बच्चे पकवानों पर टूट पड़े। होली पर विशेष पकवान बनाए गए थे। परिवार के सब लोग मिलकर त्यौहार का आनंद ले रहे थे। चाची बोली,” बाबू अब अपना सामान भी समेट लेना, कल सुबह जाना भी है।” बाबू जाकर मां से लिपट गया। “नहीं जाऊंगा मां।” उसने दृढ़ता से कहा। कोई कुछ कहता उससे पहले ही चाची शुरू हो गई,” यहां गांव में रहोगे तो अपने उन गंवार दोस्तों के साथ ही घूमते रह जाओगे। पढ़ लिख कर कुछ बन ही जाओगे शहर में।” बाबू ने डब्बू को देखा और फिर चाची की बात का जवाब दिया। ” चाची, शहर जाकर एक घरेलू नौकर बनने से कहीं अच्छा है गंवार बने रहना। मेरे दोस्त गांव में रहते हैं लेकिन इंसानियत जानते हैं। अपने रिश्तेदारों को नौकर नहीं मानते हैं।” बाबू और भी बहुत कुछ बोलना चाहता था किन्तु बाबा ने उसे रोक दिया।चाची नाराज़ होकर अंदर चली गई। डब्बू बाबू के पास आकर बोला,” मैं अपने और मां के व्यवहार के लिए तुमसे माफी मांगता हूं भाई। इस बार मैं तुम्हे अपने कमरे में ही रखूंगा। मैं जान गया हूं तुम कितने अच्छे हो। बस ज़िद छोड़ दो और मेरे साथ चलो।” बाबू ने डब्बू को गले से लगा लिया। ” मैं तुम्हारा अगली होली पर अपने गांव में ही इंतजार करूंगा। फिर से मस्ती करेंगे। मेरे भाई मैं वहां नहीं जाऊंगा। नहीं पढ़ पाया तो खेती करूंगा पर एक इंसान बनूंगा।” बाबू ने डब्बू को समझाते हुए कहा। मां बाबा उसकी बात से सहमत थे। चाचा सिर झुकाए खड़े थे। चाची मुंह फुलाकर बैठी थी। तभी डब्बू ने बाबू का हाथ खींचते हुए कहा,” बाबू अभी तो खेल लेते हैं। कल तो मुझे फिर से वीडियो गेम ही खेलना पड़ेगा।” बाबू हंसकर उसके साथ हो लिया।
— अर्चना त्यागी