लघुकथा

मैं हूँ ना

“माँssss…क्या मुझे भी तेरे जैसा ही बचपन मिलेगा ? क्या मुझे भी सीढ़ियों पर भूखे-प्यासे तेरे इंतजार में सोना पड़ेगा ? नहीं …माँ मुझे तेरे जैसा बचपन नहीं चाहिये । मुझे मिट जाने दो । मुझे माफ कर दो माँ…मैं जा रहा हूँ ।”
वह पसीने से नहाई हुई जाग गई । पास में सोये हुए सुयश उसकी चीख सुनकर उठ बैठे ।
“क्या हुआ वसु, तुमने कोई बुरा सपना देखा क्या ? अरे ! लगता है तुम उस डॉक्टरनी की बातों से डर गई हो ।”
“नहीं सुयश, मैं डॉक्टर की बातों से नहीं, बल्कि अपने ही बचपन की यादों से डरी हुई हूँ ।
मुझे याद नहीं कि कभी माँ के गोद में या बगल में सोयी होऊँ। जब से होश संभाला, आया को ही अपनी माँ मानी ।
पहली बोली जिसे मातृभाषा कहते हैं, मुझे सीखने में पाँच साल लगे,आया बदलती रही और मैं मूक बनी रही। जब मुझे प्ले स्कूल भेजा गया तो मैं बोलना सीखी। मैं भी तो नौकरी करती हूँ क्या मैं आने वाले बच्चे के साथ न्याय कर पाऊँगी ?”
“हूँहह… इसका मतलब तुम अपने डरावने बचपन से डरकर आज तक माँ बनने से डरती रही। लेकिन तुम फिक्र मत करो, हम दोनों मिलकर उसे पालेंगे । ‘चांदी की डोरी और सोने का पालना, प्यार के झूले में झूलेगा तेरा लालना’ ।”
“बेकार में चिंता करती हो, प्यार में बहुत ताकत होती है । पुराने जख्म भी प्यार के मलहम से मिट जाते हैं, फिर तुम्हें तो अच्छे बुरे का अहसास है, तुम्हारे साथ मैं हूँ ना, सच में बचपन की अच्छी हो या बुरी घटनाएं अक्सर हमें कभी डराती हैं, कभी होठों पर मुस्कान लाती हैं ।”
— आरती रॉय

*आरती राय

शैक्षणिक योग्यता--गृहणी जन्मतिथि - 11दिसंबर लेखन की विधाएँ - लघुकथा, कहानियाँ ,कवितायें प्रकाशित पुस्तकें - लघुत्तम महत्तम...लघुकथा संकलन . प्रकाशित दर्पण कथा संग्रह पुरस्कार/सम्मान - आकाशवाणी दरभंगा से कहानी का प्रसारण डाक का सम्पूर्ण पता - आरती राय कृष्णा पूरी .बरहेता रोड . लहेरियासराय जेल के पास जिला ...दरभंगा बिहार . Mo-9430350863 . ईमेल - [email protected]