नव भोर सुहानी बिखरी सी
नव भोर सुहानी बिखरी सी
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पीली – पीली फूली सरसों ,
ली ओढ़ धरा ने चुनरी सी |
बागों – बागों बगरा बसन्त,
छायी हरीतिमा गहरी सी |
बिखरा चहुँओर बसन्ती रंग,
अलियों ने कुसुमों को चूमा –
सूरज ने फिर अंगड़ाई ली ,
नव भोर सुनहरी बिखरी सी |
अलमस्त बहारें झूम उठी ,
बह रही मलय भी महकी सी |
सज गयी धरा नव सुमनों से,
हर दिशा लगे है चहकी सी |
फागुन के रंग हुए गहरे ,
मन मे उमंग की लहरों सी –
बासन्ती मन मनुहार करे ,
ज्यो रस गागर हो छलकी सी |
© मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल ‘
लखनऊ ,उत्तरप्रदेश