जातिवादी कविताएँ
श्री पंकज चौधरी की कविताएँ व्यंग्यबाण छोड़ती है । एक कविता है, शीर्षक ‘जाति भी एक संगठन है’ बड़धांसू है । कविता पढ़िए, यह और भी धांसू है, यथा-
“ब्राह्मण…. ब्राह्मण के नाम पर,
हत्यारे को नायक कह देता है ।
भूमिहार…. भूमिहार के नाम पर
बूचर को गाँधी कह देता है ।
राजपूत…. राजपूत के नाम पर
बलात्कारी को क्लीन चिट देने लगता है ।
कायस्थ…. कायस्थ के नाम पर
भ्रष्टाचार को संत कहने लगता है ।
बनिया…. बनिया के नाम पर
यत्र-तत्र मूतने लगता है ।
जाट…. जाटों के नाम पर
खापों को न्यायसंगत ठहराने लगता है ।
गुर्जर…. गुर्जर के नाम पर
सर फोड़ देता है ।
यादव…. यादव के नाम पर
अपराधियों की दुहाई देने लगता है ।
कुर्मी…. कुर्मी के नाम पर
बस्तियाँ उजाड़ देता है ।
कोयरी…. कोयरी के नाम पर
खून का प्यासा हो जाता है ।
चमार…. चमार के नाम पर
अछूतानंद को दलितों का सबसे बड़ा कवि मानता है ।
खटीक…. खटीक के नाम पर
उदितराज को सबसे बड़ा दलित नेता मानता है ।
पासवान…. पासवान के नाम पर
रामविलास पासवान को एकमुश्त वोट दे देता है ।
वाल्मीकि….. वाल्मीकि के नाम पर
वाल्मीकियों को असली दलित मानता है ।
और मीणा…. मीणा के नाम पर
आदिवासियों का सारा डकार जाता है ।
अब सवाल यह पैदा होता है
कि क्या भारत में
‘जाति’ से भी बड़ा कोई संगठन है !”
श्री पंकज चौधरी की यह रचना बेहद यथार्थपरक है। यथार्थवादी इसलिए है, क्योंकि यह रचना आज की हालात को रूबरू करा रही हैं !
अब नारी विमर्श पर श्री नरेंदर माने की कविता तो पढ़िए, यथा-
“औरत को आईने में यूं उलझा दिया गया,
बखान करके हुस्न का बहला दिया गया ।
ना हक दिया ज़मीन का न घर कहीं दिया,
गृहस्वामिनी के नाम का रुतबा दिया गया।
छूती रही जब पांव परमेश्वर पति को कह,
फिर कैसे इनको घर की गृहलक्ष्मी बना दिया।
चलती रहे चक्की और जलता रहे चूल्हा,
बस इसलिए औरत को अन्नपूर्णा बना दिया।
न बराबर का हक मिले न चूँ ही कर सकें,
इसलिए इनको पूज्य देवी दुर्गा बना दिया।
यह डॉक्टर इंजीनियर सैनिक भी हो गईं,
पर घर के चूल्हों ने उसे औरत बना दिया।
चाँदी सोने की हथकड़ी, नकेल, बेड़ियां,
कंगन, पांजेब, नथनियां जेवर बना दिया।
व्यभिचार लार आदमी जब रोक ना सका,
शृंगार साज वस्त्र पर तोहमत लगा दिया।
खुद नंग धड़ंग आदमी घूमता है रात दिन,
औरत की टांग क्या दिखी नंगा बता दिया।
नारी ने जो ललकारा इस दानव प्रवृत्ति को,
जिह्वा निकाल रक्त प्रिय काली बना दिया।
नौ माह खून सींच के बचपन जवां किया,
बेटों को नाम बाप का चिपका दिया गया।”
दोनों कविताएँ समीक्षा हेतु भी यथार्थपरक और बेबाक कहने के प्रति दृढ़ संकल्पित हैं !