ग़ज़ल – ले गया था
वो आंखों का भी मंज़र ले गया था
मेरा आंसू समंदर ले गया था
कभी उसकी ज़मींदारी रही थी
गया तो सिर्फ बिस्तर ले गया था
ये सच है जीत ली थी उसने दुनिया
मगर फिर क्या सिकंदर ले गया था
अजब उल्फत उसे महबूब से थी
लगा जो सर पे पत्थर ले गया था
बंटी लोगों में सारी योजनाएं
बचा जो थोड़ा अफसर ले गया था
मैं मरता भी भला कैसे यहां पर
मेरा हर ज़हर शंकर ले गया था
मेरी रोटी को दो हिस्सों में करके
बचाकर सारा बंदर ले गया था
— डॉ. जियाउर रहमान जाफरी