ग़ज़ल
वो चिट्ठियों का दौर पुराना हो गया,
जबसे मोबाइल से याराना हो गया।
खत्म हुई बातें इन्तजार की खत के,
अब तो रूबरू इश्कियाना हो गया।
निगाहें दर पर डाकिये का इन्तजार,
वह किस्सा गुजरा जमाना हो गया।
पढ़ते थे वह भी जो लिखा ही नहीं,
छिप छिपकर पढ़ना फसाना हो गया।
कितनी बार भिगोया पढ़कर आंखों को,
रात भर जगना, पुराना हो गया।
इश्क मोहब्बत की बातें जो लिखी नहीं,
पढ़कर वो आशिक दीवाना हो गया।
— अ कीर्ति वर्द्धन