कविता

औपचारिकता

इस बार नवसंवत्सर
चैत्र प्रतिपदा का
शोर कुछ अधिक है,
होना भी चाहिए
और हो भी क्यों न?
हम तो औपचारिकताओं में ही
जीने के आदी जो हैं।
तभी तो आजादी के बाद से अब तक
हिन्दी दिवस/पखवाड़ा मनाते हैं,
राष्ट्र भाषा के बजाय
राजभाषा का झुनझुना बजाते हैं।
आधुनिकता के गीत गाते हैं
अंग्रेजीयत की खाल ओढ़े
वैलेंटाइन डे मनाते हैं।
वाणिज्यिक नववर्ष के नाम पर
आज तक अप्रैल फूल बनाते हैं।
हर साल हिंदू/हिन्दी नववर्ष का
ढोल पीटते हैं,
मात्र औपचारिकता निभाकर
अपनी पीठ ठोंक़ते हैं।
नववर्ष का सारा उल्लास
जी भरकर खुशियां
बस एक जनवरी को ही दिखाते हैंं,
अपनी धर्म, संस्कृति, सभ्यता को
बड़े गर्व से ठेंगा दिखाते हैं।
कितने गर्व से हम बताते
अंग्रेजी खोल में हम पाये जाते हैं,
लकीर भले खींचता हो कोई
उस पर चलते हमीं पाये जाते हैं।
फिर चैत्र प्रतिपदा नवसंवत्सर का
ढोल बजे न बजे भैय्या,
हम तो इसकी भी
औपचारिकता निभाये ही जाते हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921