कविता

आ चल लौट चले

शहर छोड़
लौट चलूं अब वापिस
अपने गांव
गांव छोड़ शहर आया था
कुछ पाने और कमाने
किया हिसाब तो पाया मैंने
पाया तो क्या
सिर्फ खोया ही खोया
चला गांव से जब था
तब था मैं निश्च्छल और अबोध
आते ही पत्थरों के शहर में
पेट की खातिर हो गया पत्थर दिल
दीन खोया
ईमान खोया
खोई अपनी सरल सहजता
घर के आंगन को खोया
नीम की ठंडी छांव को खोया
बड़े बुजुर्गो के प्यार को खोया
बच्चों के स्नेह को खोया
एवज में धक्के खा कर मिले केवल दो पैसे
इन दो पैसों की खातिर
कितना कुछ खोया
चलो चले वापिस
अपने लोगों के बीच
कोई नहीं यहां अपना
सब पराएं और अनजान
चलो लौट चले इन अनजानों की बस्ती से
अपने गांव

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020