कविता : वीणापाणि माँ वागेश्वरी, शारदा !
वीणापाणि माँ वागेश्वरी, शारदा !
सकल सृष्टि आज त्राहि पुकारता |
नैनों में थे खुशियाँ जिनके
उन आंखों में हैं आँसू रुदन के
वक़्त बदल रहा या बदल रहा कायदा
वीणापाणि माँ वागेश्वरी, शारदा !
मानव का मानव पर घात हो रहा है
कई किस्म के पाप एक साथ हो रहा है
निज ज़िन्दगी से भी लोग तंग आ चुके हैं
संसार में तुम्हारे न जाने क्या – क्या हो रहा है ?
अपराध, अपराधी नहीं है इस जगत में
सत्य का कोई साथी नहीं है इस जगत में
मौन होकर देखते हैं, सभी एक – दूसरे का त-माशा
वीणापाणि माँ वागेश्वरी, शारदा !
लोग घरों में से निकलने से डरते हैं
क्योंकि समाज में तरह – तरह के मुसाफ़िर चलते हैं
वक़्त, बे-वक़्त कौन किसका शिकार हो जाये
ऐ सन्देह आज मन – मन में पलते हैं |
मानवता की लाज बचा लो माँ
मानव को फिर से मानव बना दो माँ
चीर जगत की सुन लो अभिलाषा –
वीणापाणि माँ वागेश्वरी, शारदा !
— महेन्द्र कुमार मध्देशिया