पर्यावरण-संरक्षण के दोहे
ज़हरीली सारी हवा,कैसा यह अभिशाप ।।
पेटरोल,डीजल खपें,बिजली जलती ख़ूब ।
हरियाली नित रो रही,सूख गई सब दूब ।।
यंत्रों ने दूषित किया,मौसम और समाज ।
हमने की है मूर्खता,हम ही भुगतें आज ।।
नगर घिर गये धुंध में,धूमिल सारे गांव ।
धुँआ-धुँआ जीवन हुआ,गायब सारी छांव ।।
दिखती नहिं पगडंडियाँ,चारों ओर गुबार ।
तिमिर विहँसता नित्य ही,रोता है उजियार ।।
जनजीवन रोने लगा,सिसक रहा इनसान ।
हर प्राणी भयभीत है,आफत में है जान ।।
आवाजाही रुक गई,मंद हुआ व्यापार ।
शिक्षा,ऑफिस,काम पर,हुई सघनतम् मार ।।
प्रकृति बिलखती आज तो,कारण है अविवेक ।
यदि हम चाहें निज भला,तो करनी हो नेक ।।
आत्मचेतना से मिटे,प्रियवर आज कलंक ।
सभी करें कुछ अब खरा,क्या राजा ,क्या रंक ।।
फिर से अब आबाद हों,नगर,बस्तियाँ-गाँव ।
तभी मिलेगी वक़्त को,मनभावन इक छाँव ।।
— प्रो.(डॉ) शरद नारायण खरे