मुक्तक/दोहा

पर्यावरण-संरक्षण के दोहे

बिगड़ा है पर्यावरण,बढ़ता जाता ताप ।
ज़हरीली सारी हवा,कैसा यह अभिशाप ।।

पेटरोल,डीजल खपें,बिजली जलती ख़ूब ।
हरियाली नित रो रही,सूख गई सब दूब ।।

यंत्रों ने दूषित किया,मौसम और समाज ।
हमने की है मूर्खता,हम ही भुगतें आज ।।

नगर घिर गये धुंध में,धूमिल सारे गांव ।
धुँआ-धुँआ जीवन हुआ,गायब सारी छांव ।।

दिखती नहिं पगडंडियाँ,चारों ओर गुबार ।
तिमिर विहँसता नित्य ही,रोता है उजियार ।।

जनजीवन रोने लगा,सिसक रहा इनसान ।
हर प्राणी भयभीत है,आफत में है जान ।।

आवाजाही रुक गई,मंद हुआ व्यापार ।
शिक्षा,ऑफिस,काम पर,हुई सघनतम् मार ।।

प्रकृति बिलखती आज तो,कारण है अविवेक ।
यदि हम चाहें निज भला,तो करनी हो नेक ।।

आत्मचेतना से मिटे,प्रियवर आज कलंक ।
सभी करें कुछ अब खरा,क्या राजा ,क्या रंक ।।

कोरोना के वेग से,हर जन है भयभीत।
आओ हम मिलकर लड़ें,तब पाएँगे जीत।।

फिर से अब आबाद हों,नगर,बस्तियाँ-गाँव ।
तभी मिलेगी वक़्त को,मनभावन इक छाँव ।।

— प्रो.(डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]