हरि इच्छा
भविष्य के गर्त में क्या छिपा
मालूम नहीं
देखा था जो सपना
चकनाचूर हुआ
सजाए थे सपनों के महल जो
सब ध्वस्त हुए
जो सोचा था मैंने वो मेरी कल्पनाएं थी
जो दिया खुदा ने वो उसकी चाहत थी
मुझे वोही मिला जो मालिक की मर्जी थी
मैं तो बेकार में ख्वाबों में था खोया हुआ
इंसान सोचता कुछ है
और ईश्वर देता उसे कुछ है
बेहतर है जिंदगी के लिए
बस कर्म कर और बाकी छोड़
उस ईश्वर के लिए