ग़ज़ल
कभी तो रात बीतेगी, कभी तो फिर सुबह होगी।
मुए इस वायरस पर भी, मनुज तेरी फ़तह होगी।
खुदा के इन्तज़ामों को, धता बतला रहे थे हम,
वबा भेजी गई है तो, वबा की कुछ वजह होगी।
ज़मीन-ओ-आसमाँ, पानी, हवा, सब कर दिया दूषित,
किसी बीमार को हासिल शफ़ा फिर किस तरह होगी।
दवाएँ भी बिकेंगी ब्लैक में, मालूम था किसको,
कि अब इन्सानियत इन्सान के हाथों जिबह होगी।
अजब हालात हैं, भगदड़ मची है अस्पतालों में,
बता तो दो कि थोड़ी ऑक्सीजन किस जगह होगी।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’