श्रद्धांजलि
ये कैसा दौर चल रहा है
श्रद्धांजलि की श्रद्धा भी
जैसे रेल हो रहा है,
कोरोना एकाध या
कभी कभार क्या
जैसे थोक में
कलमकारों को लील रहा है।
इतने कम समय में ही
हमनें कितनों को खोया
हिसाब किताब नहीं कर सकता
क्योंकि बेशर्म कोरोना
बिल्कुल भी नहीं मोहलत देता ।
श्रद्धांजलि देना भी
अब डराने लगा है ,
अगला नं. अपना ही तो नहीं है
डर सताने लगा है।
क्या करूँ? क्या न करुँ?
समझ में आता नहीं है,
श्रद्धांजलि देता जरूर हूँ मगर
श्रद्धा आये न आये,
मौत का खौफ सिर पर बैठा है,
मुआ एक पल भी
छोड़कर जाता नहीं है।
डर डर के रोज अपने प्यारों को
श्रद्धांजलि दे रहा हूँ,
जाने क्यों लगता है मुझे
श्रद्धांजलि कम दे रहा हूँ,
अपने लिए श्रद्धांजलि के
अग्रिम आमंत्रण दे रहा हूँ,
रोज रोज दो चार
श्रद्धांजलि समारोहों में
आनलाइन शिरकत कर रहा हूँ,
डर डरकर जी रहा हूँ,
श्रद्धांजलियां देता जा रहा हूँ।