तेरे बच्चों को वरदान दूं
पेड़ों ने अपना श्वास तोड़ा तो,
इंसान अपने प्राण भूल गया।
यहां बढ़ती बदहाली को कौन समझे?
जो समझे उसी को हमने लूट लिया।
आज आदमी-आदमी को देखकर डर गया।
लाख जतन कर भी टूट गया।
स्वार्थ के गहरे दरिया में वो डूब गया।
हमारा विनाश कर इठलाता क्यों है?
बड़ी-बड़ी मिसाइलों को बनाकर विकास बताता क्यों है?
तू ही बता तेरे स्वार्थ के विकास का पहिया
अब क्यों रुक गया?
काल के कटारी की धार तो देखो।
कौन-कौन है! जो बच पाया?
तुमने सदा अपने अभिमान को ही बोला।
हमने सदा अपने स्वाभिमान को ही तोला।
काल भी आज मुख खोल कर बोला।
तूने मेरे साथ क्या-क्या नहीं किया?
अब चुपचाप क्यों बैठा है घर में दुबक कर?
अपनी अंधी रफ्तार को ही भूल गया है!
मुझको जरा तू पहचान!
मैं तो वही हूं!
लक्ष्मण को संजीवनी देकर प्राणों का दान दूं।
मरते दम तक मैं, तेरे बच्चों को वरदान दूं।
— डॉ.कान्ति लाल यादव