सामाजिक

अब और कितना अच्छे से समझाए ईश्वर

न जप जरूरी न तप, न मेला कुंभ का जरूरी न स्नान शाही न धागे मन्नत के, न मन में डर का खेला, साफ़ मन और नेकी की भावना से जीवन सफ़ल करो। कितना कुछ दिया है हमें ईश्वर ने प्रकृति ने कद्र करो और सद्भाव और प्रेम से रहो आत्मा भी खुश होगी। “ईश्वर की अवहेलना का प्रतिसाद है ये महामारी और कितना अच्छे से समझाए ईश्वर”
क्यूँ लिख रही हूँ ये सब ?
जब इंसान की फ़ितरत को बदलना शायद जिसने इंसान को बनाया है उसके भी बस की बात नहीं। मौत तांडव कर रहा है,अपने अपनों से बिछड़ रहे है, रोज़ साँसे छूट रही है, रोज़ एक नाम मिट रहा है, प्रदेश, नगर और राज्य उजड़ रहे है फिर भी लोग यहाँ ज़िंदगी का सौदा कर रहे है। तबाही का मंज़र और कितना भयावह देखना चाहते है। अपनी करनी का फल भुगतान कर रहा है फिर भी सुधरता नहीं इंसान।
अब तो रुको, अब तो थमों ये जो वक्त की मार पड़ी है परिवार के परिवार साफ़ हो गए पर स्वार्थ वृत्ति में रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ा। भले ही सतयुग का निर्माण हम न कर पाए कम से कम इंसानियत को तो बचाएं। क्या लेकर आए थे क्या लेकर जाना है, क्यूँ न आत्मनिरीक्षण करें कहाँ गलती की हमने, क्यूँ ईश्वर रूठे है।
देख लिया हम सबने ज़िंदगी की डोर उस अनदेखी शक्ति के हाथों बंधी है, जब चाहे खिंच लेगा। हमें पता भी नहीं चला और हवाओं ने अपना रुख़ मोड़ लिया। तरस गए साँस-साँस को और मौत के हाथों की कठपुतली बनते रेत की भाँति सब बिखर गए।
अब ठहर जाओ अपनों को गले लगा लो, गैरों से बैर मिटाओ। किसीको अपनी गलती का अहसास तक नहीं दूसरों में खोजते दूरी बना रहे है। कुछ नहीं रखा बैर भाव में, तू तू मैं मैं मत करो। चुटकी धूल की जरूरत भी कब पड़ जाए कह नहीं सकते। व्यवहार अच्छा होगा तो चार कंधे राम नाम सत्य बोलते प्यार से नम आँखें लेकर आगे आएंगे। न प्रकृति की रक्षा कर पाए हम, न भाईचारे की भावना को समझे, न ईश्वर की लीला को पहचान पाए न विचारों में शुद्धि रख पाए। ये हाल तो होना ही था।
ज़िंदगी बहुत छोटी है उम्र भर की खुशी उतने वक्त में बांट ले और बटोर लें। अपनों के साथ हंस लो, अपनों के साथ जश्न मनाओ, संवाद हीन फासले रिश्तों को ख़त्म कर देते है। दिल में अपनेपन का दीप जलाओ। ए मानव, मानव बनें रहो दुर्गा को काली का स्वरूप लेने के लिए मजबूर मत करो। ज़लज़ला आ जाएगा और सबकुछ बहा ले जाएगा।
— भावना ठाकर

*भावना ठाकर

बेंगलोर