माँ तो बस ‘माँ’ होती है
न भाजपाई हूँ,
न कांग्रेसी !
न कामरेड,
न बसपाई,
न केजरीवाई !
न लालूआई,
न मुलायमलाई !
चाय-नाश्ते छोड़े हुए
साल हो गए….
कोई भी पूछने नहीं आए
कि चाय-नाश्ता
क्यों छोड़े हो ?
इसलिए तो मैं
किसी पार्टी-पॉलिटिक्स में
शामिल नहीं हूँ !
ये ‘पार्टी’ देने पर ही
लोग खाने को जाहिश
और ख्वाहिश है न !
मैं दोपहर का भोजन में
चीनीवाला ‘हलवा’ नहीं,
नमकवाला हलवा
यानी उपमा भी नहीं,
अपितु सत्तू खाता हूँ !
माँ, मातृभूमि, मातृभाषा
इसकी कदर होनी ही है
कि मनु कहीस “मेरी माँ !
चाहे कुरूप हो या सुरूप !
यानी माँ तो माँ है ,
सार्थ समाँ है ;
पड़ोस की आँटी-
चाहे हो
कितनी ही सुन्दर ?
पर अपनी माँ
बस माँ होती है ।”
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