कहानी – ज़मीर ज़िंदा है
मेरे एक मित्र ने घर निर्माण का कार्य आरम्भ किया हुआ था। घर में लक्कड़ का काम शुरू करवाना था। इसलिए वह मुझे अपने साथ एक बड़े शहर की लक्कड़ मार्किट में ले गया ताकि दोनों की राय से अच्छी लक्कड़ खरीदी जाए। लगभग दो एकड़ में फैली लक्कड़ की दुकान पर हम चले गए। प्रत्येक किस्म की लक्कड़ वहां मौजूद थी। प्रत्येक किस्म की लक्कड़ को बहुत ही आकर्षक ढंग से तरतीब देकर रखा हुआ था। शहर में यह सबसे बड़ी दुकान थी।
हम दुकान के दफ्तर में चले गए। दफ्तर उत्तम शैली का बना हुआ था। दफ्तर में चालीस वर्ष का नवयुवक बैठा हुआ था, जो स्वयं मालिक था। उसके साथ लक्कड़ की बातचीत चली। कितनी लक्कड़ लेनी है, किस किस्म की लक्कड़ लेनी है इत्यादि।
उस नवयुवक मालिक ने चाय मंगवा ली। चाय पीने के साथ-साथ बातचीत करते हुए मेरा ध्यान उस मालिक की कुर्सी के पीछे दीवार पर लगाई हुई, एक नवयुवक डी.एस.पी. की भव्य तस्वीर पर जा पड़ा। मैंने उस मालिक से पूछा, ‘यह तस्वीर किस की है?’
उस मालिक ने हँसने हुए कहा, ‘यह तस्वीर मेरी ही है।’
‘क्या आपने नौकरी छोड़ दी है या…?’ मैंने जिज्ञासा से पूछा।
उस मालिक ने खिलती घूप की तरह हँसते हुए कहा, ‘बात कुछ इस तरह है कि जो व्यक्ति ज़मीर मारकर जीते हैं, वे बढ़िया इन्सान नहीं होते, वे समाज को रास्ता नहीं दिखा पाते, रिश्वतखोर, बेईमान, धेखेबाज, चमचागिरी करने वाले लोगों की एक श्रेणी होती है। वे अपनी श्रेणी की प्रवृतियों में जीते हैं। काकरोच को गंदगी ही अच्छी लगती है। जो प्रवृतियां पक जाती हैं वे जिस्म का एक अंग बन जाती हैं। गुलाम बनकर जीना कोई अच्छी बात नहीं होती। गलत शब्दों तथा ग़लत हुक्म की गुलामी मृत्यु से भी भंयकर होती है, जो लोग इस गुलामी को स्वीकार करके जीते हैं, समाज में उनकी कोई इज्ज़त नहीं होती। ऐसे ग़लत बंदे से लोग, अवसर के अनुसार, उससे फायदा लेने के लिए, उसको सलाम करते हैं, परन्तु उससे प्यार नहीं करते, उसको हृदय से सत्कार नहीं देते। लोग उसको ग़लत ही कहते हैं। रिश्वत लेने वाले व्यक्ति को लोक मजबूरन रिश्वत देते हैं परन्तु कहते उसको रिश्वतखोर, हरामखोर ही हैं। आदमी कम खा ले, संतोष में रहे परन्तु रिश्वतखोर, बेईमान न बनें। क्या मांस, शराब या लूटमार करके बंदा हज़ार वर्ष जीएगा, जीना तो ज़्यादा से ज़्यादा सौ वर्ष ही है। अपने घर में बंदा अचार से रोटी खाकर भी बादशाह होता है। बेईमानी की रोटी तो एक लानत है। मैं तो यह लक्कड़ का काम कर रहा हूँ, ईमानदारी की रोटी खा रहा हूँ। किसी गुलामी के अतिरिक्त।’
बहुत लम्बी चैड़ी भूमिका के बाद उसने हँसते हुए बताया, ‘मेरे पिताजी पुलिस आफिसर थे। मैं उच्च शिक्षा उत्तीर्ण करके पुलिस में डी.एस.पी. भर्ती हो गया। समस्त ट्रेनिंग आदि के बाद छह माह की मेरी सर्विस हुई थी। मेरे महकमे के उच्चाध्किारियों ने एक बलात्कार केस की जांच पड़ताल के लिए मेरी डयूटी लगा दी। मैं उस सारे केस की जांच पड़ताल के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि एक नेता के बिगड़े पुत्र ने एक निर्धन लड़की से बलात्कार किया है। परिणामों के साथ मैंने सारी फाईल तैयार करके, उस दोषी को कैद करने के लिए, उसके ऊपर केस डालने के लिए, मैंने उसको रेड करके पकड़ लिया। जब उस बलात्कारी लड़के को पकड़ा तो वह मेरे से जुर्रत से बातें करता था। उस लड़के को मैंने कहा, ‘तूने बलात्कार किया है, सारे सबूत मेरे पास हैं।’ मैंने उसे गाड़ी में बिठाकर और थाने ले जा रहा था। उसने मुझे बड़ी से बड़ी राशि की रिश्वत पेशकश की, जब मैंने उसकी एक न मानी तो वह मुझे डराने, धमकाने लगा। उसने मुझे बदमाशी एवं धमकी भरे लहज़े में कहा, डी.एस.पी. तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। यहां जी चाहे ले चल, तू मुझे वापिस यहां छोड़कर जाएगा!’
ख़ैर! मैं पुलिस स्टेशन पहुंचा ही था कि एक उच्च पुलिस अफिसर का फोन आ गया, उसने मुझे कहा, ‘इस लड़के को तुरंत वहां छोड़ आओ यहां से लाए हो।’
मैंने फोन पर ही उस उच्चाधिकारी को कहा, ‘सर, इस लड़के ने बलात्कार किया है, जिसके समस्त सबूत मेरे पास हैं। लड़की स्वयं गवाह है।’ परन्तु उस उच्चाधिकारी ने मुझे सख़्त भाषा में डांटते हुए कहा, ‘मैं जो कुछ कहता हूं करो बस, इसको तुरंत वहां छोड़कर आओ, नौकरी करनी है या नहीं?’
मेरे सामने खड़ा वह बलात्कारी लड़का नेताओं जैसा हंस रहा था, जिसमें मेरी तौहीन शामिल थी। उस लड़के ने नेतागिरी के अंदाज़ में कहा, ‘तू मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता डी.एस.पी।’
मेरी ज़मीर के जैसे टुकड़े-टुकड़े हो गए हों। जैसे इस वर्दी की तौहीन की जा रही हो, जैसे कानून अपाहिज़ हो गया हो, जैसे इंसानियत के पेट में खंजर धेप दिया गया हो। मेरी आंखों में खून दौड़ने लगा परन्तु मैं मज़बूर था। एक तरफ नौकरी, एक तरफ ग़लत हुक्म, एक तरफ मेरी तथा मेरे खानदान की ज़मीर! मेरे दिमाग़ में उनेक प्रश्न-उत्तर उभरे… परन्तु… आखि़र मैंने फैसला कर लिया कि मैं इस बलात्कारी को वापिस छोड़ने नहीं जाऊंगा। मैंने उस बलात्कारी लड़के को कुछ नहीं कहा। दफ्तर जाकर इस्तीफा लिखा तथा अपने उच्चाधिकारी को देते हुए कहा, ‘मैं उस बलात्कारी को किसी भी क़ीमत पर वापिस छोड़ने नहीं जा सकता।’ इस्तीफा देकर सीध मैं अपने सरकारी क्वार्टर में आ गया। फोन पर अपने पिता जी को नहीं बल्कि अपने दादा जी को सारी बात बता दी। दादा जी ने कहा, शाबाश बेटा! तूने हमारी इज्ज़त रख ली, जीते रहो मेरे लाल, मेरी आयु भी बेटा आपको लग जाए। आज तूने अपने खानदान की शान बढ़ा दी है। सच, मेरे बेटा, अभी वापिस आओ, मेरे गले लग जाओ। आ जा मेरा होनहार पुत्र!’
दादा जी के शब्दों ने मुझे और बल दे दिया। पिता जी तथा सारे परिवार को इस बात का पता चल गया था। पिता जी ने भी मुझे शाबाश दी।
हमारा जद्दी पुश्ती लक्कड़ का कारोबार था। यह काम मैंने स्वयं संभाल लिया। आध्ुनिक शैली का बड़ा स्टोर बना लिया। आजकल मुझे दो-तीन लाख रुपए एक माह की आमदनी है। बस ईमानदारी की रोटी खा रहा हूँ। इस में संतोष है, प्रभु है, मान-सम्मान है, प्रभु की कृपा है। अब आपके सामने हूँ, परन्तु मैंने देखा है पुलिस वालों के हाथ तो पहले ही काट लेते हैं।
— बलविन्दर ‘बालम’