ग़ज़ल
देखकर जिसको डर गया क्या था
तीरगी में उसे दिखा क्या था
रात आँखों से नींद थी ग़ायब।
जाने दिल का ये मसअला क्या था
तेरे चेहरे की बढ़ गयी रौनक़
ख़त में लिक्खा हुआ बता क्या था
ज़िन्दगी कर गया मेरी रौशन
दीप उल्फ़त का इक जला क्या था
जो सजाता था होंठ पर चुप्पी
उसके जीने का फ़लसफ़ा क्या था
राख उड़ती फिरी हवाओं में
मौत के बाद फिर बचा क्या था
झाँककर देखा उसकी आँखों में।
दर्दे-दिल के सिवा बचा क्या था